Wednesday, November 05, 2014

किस तरह

पूछा जो उनसे मैंने चाँद निकलता है किस तरह
जुल्फों को रुख पे डाल कर झटका दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने हवा चलती है किस तरह
गेसू को फूँक मार कर बलखा दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने शराब बनती है किस तरह
होठों से पानी को छूकर छलका दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने नशा चढ़ता है किस तरह
नज़रों से नज़रें बाँधकर बिठा लिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने घटा उमड़ती है किस तरह
हँस-हँस कर जोर-जोर से बतला दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने आफ़ताब ढलता है किस तरह
घूंघट को अपने चेहरे पर सरका दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने रात होती है किस तरह
आँखों में सुरमा डाल कर कज़रा किया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने संगीत निकलता है किस तरह
पैरों में पाज़ेब डाल कर टहला दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने हया छुपती है किस तरह
सीने पे आँचल डाल कर पर्दा किया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने महफ़िल बिगड़ती है किस तरह
एक शख्स को आँखें मार कर बहका दिया कि यूँ

पूछा जो उनसे मैंने लोग जलते हैं किस तरह
"शहजाद" को देख कर मुस्कुरा दिया कि यूँ

Monday, February 24, 2014

किसी से रिश्ता ना जोड़ लें सो पलकें झुका रक्खी थी
अपनी आँखों को उसने ये तरकीब सिखा रक्खी थी

हम  किसे बिस्मिल्ला करते औ' किसे चूमते 'शहजाद'
उसने उतार कर मेहँदी जो जायके में मिला रक्खी थी  

Monday, February 17, 2014

ना सही मरासिम हमसे फासले पर ही मिला करो
ये भी कोई अंदाज़ है, खफा भी नहीं औ' गिला करो 
कुछ लफ्ज़ बर्बाद कर खुद को सुखनवर कह लें
बाद मुददत के 'ग़ालिब' आज याद आया है फिर

#GHALIB
कुछ उधार सा है चंद बरसों का मुझ पे 'इसका'
कोई वो वक्त दे जाए तो क़र्ज़ से निजात पाऊँ

#KGP 

Friday, August 23, 2013

नज़्म

हम चुप-चुप से बैठे रहते हैं
एक दूसरे के साथ होकर भी
जब कोई तीसरा आ कर
जिक्र छेड़ देता है किसी चौथे का
तब दो बातें हो जाती हैं आपस में
ख़त लिखने का तो अब रिवाज़ ही उठ गया
नहीं तो पोस्टकार्ड पे लिखे वो लफ्ज़
बोलते से मालूम होते थे अक्सर
टेलीफोन की घंटियाँ बजने पर भी
वो उत्साह नहीं होता, दौड़ कर चोगा उठा लेने का
कई घरों में तो वो चोगे हैं भी नहीं
लोग जेब में डाल कर ही घूमते हैं दूरभास को
फिर भी बातें नहीं होती कभी
शायद निदा फाजली को सुन रखा है सबने
" बात कम कीजे, जहानत को छुपाते रहिये"
जहीन नहीं हैं हम, बस उम्र की चादर ओढ़े
थोड़े से बड़े हो गए हैं ॥




Sunday, June 16, 2013

नज़्म

मैं तेरी तस्वीर के साये में ...
सुनता हूँ मेहँदी हसन को हजारों बार
जब-जब वो कहते हैं, "रंजिश ही सही"
यूँ लगता है धडकनें निकाल कर रख देंगे
तुझे बुलाने की खतिर।
तू बुत तो नहीं है, फिर सुनता क्यूँ नहीं।
पढ़ के पांच नमाजें रोज़ तो लोग खुद को भी बुला लेते हैं।।