Friday, February 25, 2011

ग़ज़ल...


अच्छा लगा कि आज फिर उन्हें याद तो आई है,
ये कैसी हँसी कि निगाहें समंदर हो आई हैं .

दीदार-ए-अक्स की तवक्को नहीं थी मुझको कभी भी.
अरमाँ मचल गए कि आरजू मुझतक खींच ले आई है.

सोहबतें तो खूब की थीं हमने खामोशियों से भी उनकी,
ग़मज़दा हो गए लेकिन बात जब जुबाँ पे आई है.

मेहताब का सबब किसी दिन पूछ लिया था उनसे.
चाँद को क्या खबर,चांदनी क्या-क्या रंग लायी है.

वो आज भी कहता है यूँ दिल्लगी ना करो,'तीर्थराज'
कैसे समझाएं उन्हें कि कश्ती बहुत दूर निकल आई है..!!!





हम....वो....!!!

हम आह-आह कहते रहे..
वो वाह-वाह सुनते रहे.!!!

हम जख्म-जख्म सहते रहे..
वो जश्न-जश्न फिरते रहे.!!!

हम अश्क-अश्क पीते रहे..
वो हँस-हँस के जीते रहे.!!!

हम साथ-साथ चलते रहे..
वो हाथ-हाथ बढ़ते रहे.!!!

हम लाल-लाल होते रहे..
वो लाख-लाख कहते रहे.!!!

हम लहू-लहू गिरते रहे...
वो सुकूं-सुकूं चढ़ते रहे.!!!

हम ख़ाक-ख़ाक ढूंढते रहे..
वो पाक-पाक फिरते रहे.!!!

हम शमां-शमां जलते रहे..
वो चमन-चमन खिलते रहे.!!!

हम हम-हम को खोते रहे..
वो खुद-खुद पे मरते रहे.!!!

Tuesday, February 22, 2011

संगम...(त्रिवेणियाँ)


सुबह-सुबह नींद मेरी कह रही थी मुझसे
"रात करवटें बहुत मुस्कुरा कर ली तुमने"

भीगे हुए तकिये को हमने चुपचाप पलट दिया.||


क्यूँ  जलाकर शौक से..
रिमझिम की दुआ करते हो अब ??

मरहम जख्म मिटाते हैं,दाग नहीं.||


माँ ने आँगन से आवाज़ लगायी..
"लाओ तुम्हारे कुरते के दाग साफ़ कर दूं"

हमने सहजता से कहा,"दामन खुरच रहे हैं अभी".||


तमन्नाएं आज फिर कह रही थीं हंसकर
तुम्हे अब भी उस नज़र की आस है ??

दो बूँद गिरते ही, आँखें मूँद ली हमने.|| 

Tuesday, February 01, 2011

इरशाद...

जरा सी हंसी को मैंने यूँही नहीं पाया है..
खुद को पिघलाकर उनकी आँखों में दीया जलाया है..
नजर आपकी छोटी हो भले ही इस मुकाम पर..
ना छीनो यह ख़ुशी अभी मैंने खुद को संभाला है||

शब्दों से खेलने की आदत तो बचपन से थी..
शतरंज से मुखातिर उन्होंने करा दिया..
दिल में जलजले तो पहले भी उठते थे,
उन्हें होठों के कगार पर आपने ही ला दिया||

मुदत्तों बाद....मुदत्तों बाद...
मौजें किनारों से मिल आई हैं..
मानो धरती बरसों बाद नहाई है..
पहली बारिश में भीगती हैं पंकज की पंखुडियां जैसे...
कुछ वैसे ही भीग रहा हूँ मैं बड़े ही सुख से||

मेरे होठों की हंसी तो हर कोई देख लेता है..
इन आँखों का सूनापन किससे बांटू..
कहकहों की गूँज तो सुन रहे हैं सभी..
खामोशियों की चीख को किस ओर छुपा धरूँ||

मासूमियत में अपनी हम खोये थे इस कदर..
की उनकी हर अदा से मोहब्बत कर बैठे..
कह तो दिए थे उन्होंने यूँही वो 'तीन' लफ्ज़..
नासमझी में अपनी हम उसे प्यार समझ बैठे||

किसी को टूटकर चाहो इतना..
की उसकी बेखुदी भी तुम्हे खुद की बंदगी लगे..
अदावत नुमाइशों में दिखती रहे उनकी..
पर ए मेरे दोस्त...
जब वो ही ना मिले...
फिर क्यों जिंदगी,जिंदगी लगे||

शरारत उन निगाहों ने,कुछ यूँ की मेरे दिल से..
झुकती पलकों की आड़ में हम खुद को ही भुला बैठे..
गुस्ताखियाँ तो हमने भी खूब की थीं..
चाहतों की आड़ में.....
कसम पैमाने की,भरे मैकदे में ही खुद को छलका बैठे||

सोचा ना था कभी ऐसी भी जिंदगी होगी,
मंजिलों के संग राहें भी हंसती होंगी..
गुमनामियों के शेर अब हम क्या पढ़ें..
मेरी काबिलियत भी अब मुझीपर हंसती होगी||