जरा सी हंसी को मैंने यूँही नहीं पाया है..
खुद को पिघलाकर उनकी आँखों में दीया जलाया है..
नजर आपकी छोटी हो भले ही इस मुकाम पर..
ना छीनो यह ख़ुशी अभी मैंने खुद को संभाला है||
शब्दों से खेलने की आदत तो बचपन से थी..
शतरंज से मुखातिर उन्होंने करा दिया..
दिल में जलजले तो पहले भी उठते थे,
उन्हें होठों के कगार पर आपने ही ला दिया||
मुदत्तों बाद....मुदत्तों बाद...
मौजें किनारों से मिल आई हैं..
मानो धरती बरसों बाद नहाई है..
पहली बारिश में भीगती हैं पंकज की पंखुडियां जैसे...
कुछ वैसे ही भीग रहा हूँ मैं बड़े ही सुख से||
मेरे होठों की हंसी तो हर कोई देख लेता है..
इन आँखों का सूनापन किससे बांटू..
कहकहों की गूँज तो सुन रहे हैं सभी..
खामोशियों की चीख को किस ओर छुपा धरूँ||
मासूमियत में अपनी हम खोये थे इस कदर..
की उनकी हर अदा से मोहब्बत कर बैठे..
कह तो दिए थे उन्होंने यूँही वो 'तीन' लफ्ज़..
नासमझी में अपनी हम उसे प्यार समझ बैठे||
किसी को टूटकर चाहो इतना..
की उसकी बेखुदी भी तुम्हे खुद की बंदगी लगे..
अदावत नुमाइशों में दिखती रहे उनकी..
पर ए मेरे दोस्त...
जब वो ही ना मिले...
फिर क्यों जिंदगी,जिंदगी लगे||
शरारत उन निगाहों ने,कुछ यूँ की मेरे दिल से..
झुकती पलकों की आड़ में हम खुद को ही भुला बैठे..
गुस्ताखियाँ तो हमने भी खूब की थीं..
चाहतों की आड़ में.....
कसम पैमाने की,भरे मैकदे में ही खुद को छलका बैठे||
सोचा ना था कभी ऐसी भी जिंदगी होगी,
मंजिलों के संग राहें भी हंसती होंगी..
गुमनामियों के शेर अब हम क्या पढ़ें..
मेरी काबिलियत भी अब मुझीपर हंसती होगी||