Monday, November 26, 2012


फिसलती रही तेरे गेसू के सहारे मेरी नजर 
छुपकर दुपट्टे में आखिर, सीने पे बैठ गयी 

Saturday, November 24, 2012

पथरायी सी आँखें, रुखसार पे नमी खोयी-खोयी सी 
कोई वो शख्स नहीं रहा जो मुझसे बिछड़ गया था कभी 

Wednesday, November 21, 2012

ग़ज़ल


वो ख्यालों में भी मेरा जिक्र छेड़ दे तो मोहब्बत लिख देता 
फेर कर उँगलियों कोरे कागज़ पे अपनी ज़हमत लिख देता

झील में फेंके हुए मंजर कोई लौटाए ना लौटाए मुझे लेकिन  
फिर उस किनारे पे मिल जाता, मैं सारी हसरत लिख देता   

कितने ही यारों की कहानियाँ बयाँ की हैं मेरे अल्फाज़ ने
'शहजाद' कोई महबूब ना मिला, जिसे मैं ख़त लिख देता   


Wednesday, November 07, 2012

किस गुरूर-ए-तर्ज़ पे 'शहजाद' मेरी तौहीन करता है  
हम शख्सियत रखते हैं, वो केवल हुस्न रखता है 

Monday, November 05, 2012

भरी जम्हूरियत में कभी ऐसी भी झांकी होगी 
किसी दिन हिन्दोस्ताँ को चौराहे पे फांसी होगी 

नौकरशाहों के हाथ बंधे होंगे कागज़-ओ-कलम लिए
मुहर अंगूठे का हर तरफ सियासत लगाती होगी  


Wednesday, October 31, 2012

मैं खुली आँखों से ही देखा करता हूँ सपने 'शहजाद'
ये वो ख्वाब नहीं, जो नींद उचट जाने के मोहताज हों 

Tuesday, October 30, 2012

मत सेंकिए ख्वाब यहाँ सिक्के की आँच पर
ज़माने में भी हर शोहरत बिकाऊ नहीं होती  

Saturday, October 27, 2012


मैं दीवारों से पूछ लेता हूँ बगल के कमरे का हाल 
मकाँ में एक वही हैं जिनसे किसी को रंजिश नहीं 

Thursday, October 18, 2012

खींचते हो कश पे कश शेख-मिजाजी से
जिंदगी तेरी, धुंए में उडी जाती है लेकिन   

Monday, October 15, 2012


मिटा दो हर्फ़-हर्फ़ उनके नया पैगाम लिख डालो 
हथेली की लकीरों से, खूनी अंजाम लिख डालो 

बड़ी जल्दी में हैं तारीखें, सेहर तक बदल जाएँगी 
गुज़रते हुए हर एक मंजर पे अपना नाम लिख डालो 
 

Sunday, September 23, 2012

बेतलब गुफ्तगू, कौन पराये से करता है
मेहमाँ-नवाजी जहाँ, किराये पे करता है

आदमी अपनी गिरफ्त में भी महफूज़ नहीं 
अँधेरे से बच निकले तो शक साये पे करता है

ज़रस से उठती है रह-रह के इंतबाह 
दम भरने तलक ही दूर है सिम्तुर्रास 

Friday, September 21, 2012

किनारे खड़े रहकर, शेखियां ना बघारो
समंदर बताएगा कौन कितने पानी में है 

Thursday, September 20, 2012

किताबी जज्बात में हैं मशरूफ सफों के दरमयां
मुझसे अब दिल-ऐ-आशना की उम्मीद ना कर 

Tuesday, September 11, 2012

दीवारों की कैद में किसी दिन ये मकाँ रोयेगा
कब गुल-ऐ-रंज से मुकम्मल गुलिस्ताँ रोयेगा

सलाखों में जब्त है हर तरफ अवाम 'तीर्थराज'
अब जम्हूरियत की दहलीज पे हिन्दोस्ताँ रोयेगा

Monday, September 10, 2012


हिजाबों में भी उनसे आखिर क्यूँ मिले कोई
सुकूँ मुनासिब हमें है केवल तो क्यूँ जले कोई 

खुलेआम होता है यहाँ हर गुनाह मजलिस में
फिर खताएं इश्क की, पर्दे में क्यूँ करे कोई

कुछ ख्वाब देखे थे हम ने कभी 
मुदत्तों से नींद नहीं आती फिर 

हाँ किसी दिन मौसमों से कहना अपने मन की 
देखते हैं, मर्ज़ी-बेमर्ज़ी बारिशें होती हैं कि नहीं 

ये ना समझो तेरी बेनियाज़ी का एहसां लेता हूँ
गुरूर तुम इसलिए करते हो कि मैं शह देता हू 

पूछा, कितनी दूर हैं तेरी जुबाँ से लब मेरे?
अब चुप रहें या फूंक से ही गुफ्तगू कर लें  

Friday, September 07, 2012

फिर किसी ने छेड़ दी जिक्र-ऐ-मोहब्बत
फिर लब पे उस माबूद का नाम आ गया  

ग़ज़ल


इक जरा सी तूल क्या दी, तुम पतंगें उड़ाने लगे
जुर्रत प्यादों की हुई, वजीर से नजरें मिलाने लगे

वफ़ा में हैं कि कद्र है ना कोई तलब-ओ-उम्मीद
खुदा को छोड़ हम कहाँ सर अपना झुकाने लगे 

दूसरे सिरे पे धागे के तुम भी बंधे थे 'तीर्थराज'
बुझती लपट को फूंक देकर क्यूँ सुलगाने लगे 

Wednesday, August 29, 2012

झुक कर गुज़रता हूँ,  अक्सर उसकी गली से मैं
अदब लोग कह लेते हैं,आदाब उनसे हो जाता है 

Thursday, August 16, 2012

ग़ज़ल

मोरनी के इश्क में सुर्खाब हो के देखिये
आइये इस खेल में, बर्बाद हो के देखिये

खुद ही बार-बार जख्म खाने कहेगा दिल  
घायल किसी नज़र से एक बार हो के देखिये

शायरी का क्या है, आप चली आएगी
बेतलब इश्क के फनकार हो के देखिये 

फिर सिमट कर 'और' ही आप हो जायेंगे 
आगोश में उनके जार-जार हो के देखिये

नाम किसका है काबिज़ अहल-ऐ-जहाँ में 'तीर्थराज'
बदनाम किसी के नाम से सर-ऐ-बाज़ार हो के देखिये 

Tuesday, August 14, 2012

सोहबतों में ख्वाहिशें बतानी नहीं आती
कह कर चाहतें हमें जतानी नहीं आती

तरकीब तुमसे ही सीखी है संगदिली की
कोई और दोस्ती यूँ निभानी नहीं आती  


Friday, August 10, 2012

तुम किताबों में ढूंढते रहना तरक्की के नुस्खे
मैं छुपकर इमाम से जहानत चुरा ले जाऊँगा  


Friday, August 03, 2012


अब तो यही जरिया है मुकम्मल दीदार करने का..
किसी दिन सुर्ख़ियों में उनको हम अखबार के मिलें


Saturday, July 28, 2012

विभा के तीर पर बिजलियाँ कड़कड़ाने लगी हैं
समर के सिन्धु में शक्तियां लड़खड़ाने लगी हैं 

उठो पार्थ...!! गरज कर गांडीव संभालो...
समय की कोख में चुनौतियां अकुलाने लगी हैं 

Thursday, July 19, 2012

काश पंडित ने गुरुकुल में अजाँ भी सुनाई होती
लिखावटें कभी-कभी हमें उल्टी भी लिखाई होती

ग़ालिब तेरी जमात का मैं सबसे अजीज शहजाद होता
किसी ने गर 'तीर्थराज' को थोड़ी उर्दू सिखाई होती  


ग़ज़ल


पूछूं तो फिर शर्मा के जो इनकार करते हो
हो ना हो तुम भी किसी से प्यार करते हो

किस-किस से छुपाओगे ये चेहरे की रौनकें
खामखा  यारों की चुटकियाँ बेकार करते हो

हर नजर में होती है यहाँ रंजिश घुली हुई
हसरतों का क्यूँ अपनी तुम इश्तेहार करते हो

खूब चढ़ा है अबके ये हिना का रंग 'तीर्थराज'
मोहब्बत एक उसी शख्स से बार-बार करते हो 


बेशर्म देख रहे थे जो हया उसने आँचल में छुपा रक्खी थी
फूटपाथ पर किसी अबला ने बच्ची सीने से लगा रक्खी थी

अँधेरा होते ही चंद सिक्कों ने उससे छीन लिया 'तीर्थराज'
जो चार ईंटों की छत उसने सुबह से सर पे उठा रक्खी थी


ग़ज़ल


तुम हमसे यूँ बेरुखी की आदत बदल डालो
जरा देर ही सही पर ये हकीकत बदल डालो

हम हुस्न्फरोश इस कदर खिंचे चले आते हैं
हो सके तो तुम अपनी ही सूरत बदल डालो

क़ुबूल कर खुदा तुम्हे फरिश्तों से बैर किया
अब कहते हो रस्म-ऐ-इबादत बदल डालो

पी लेते हो ओक से गर पैमाना टूट जाता है
जो शै लाचारी बन बैठे वो आदत बदल डालो

बहुत हुआ कि खैरात में लुटाते रहे 'तीर्थराज'
तुम भी वफाओं की अपनी कीमत बदल डालो



इत्तेफाकन अब्बा की मैय्यत उसके करीब ना थी
उस रोज भी कोई बात दिन में अजीब ना थी....

वो डिबिया जलाकर किताबें चाटता रहा रात भर
शाम के निवाले में जिसको दो रोटी नसीब ना थी 



सरकारी दफ्तर की तरह होते हैं यहाँ चाहतों के सिलसिले
तमाम उम्र गुज़र जाती है अक्सर अर्जियां टलते-टलते


झाँक कर चीथड़ों से लाचारगी नुमाइश करती है
इंसानों की भीड़ से इंसानियत सिफारिश करती है

काँप जाती है रूह मेरी जब 'टेशन के किनारे पर
हाथ उठा मुफलिसी,जिंदगी की गुजारिश करती है


Friday, April 20, 2012

कहाँ मुनासिब किसी को उनकी रू-ब-रू-औ'-सोहबत
खुश-किस्मत हैं हम जो जुबाँ से दीद किया करते हैं..


Thursday, April 19, 2012

'ग़ालिब' वो तेरा दौर भी क्या खूब हुआ करता था.. 
ढाई अक्षर पढ़ा औ' सारी जमातें मुकम्मल कर लीं   


ग़ज़ल

वही रोज-रोज के किस्से वही दिल से दिल की बगावत भी
किसी दिन लगता है क़त्ल होगी मेरे हाथों ये मोहब्बत भी

अच्छा हुआ कि हम सब ने फरेब का दामन थाम रक्खा है    
वरना आजकल होती है सर-ऐ-बाज़ार नीलाम शराफत भी 

हर किसी पे इस कदर कीचड ना उछालो हिन्दोस्ताँ वालों 
कहीं-कहीं तो मिलाती है नज़र आवाम से ये सियासत भी  

अब और उसके सितम किस अलफ़ाज़ में बयाँ करें 'तीर्थराज'  
सर झुका चाहता है,दे दी जिसको,क़त्ल करने की इजाजत भी



Sunday, April 15, 2012

मैं एक  वायज बन बैठा सुखनवर बनते-बनते
खुद ही घायल बन बैठा चारागर बनते-बनते

शक्शियत ये कैसी अता की मुझे, तुम ने खुदा
वो मेरा शागिर्द बन बैठा हमसफ़र बनते-बनते 


Thursday, April 12, 2012

ग़ज़ल

जिसके सीने में जख्म नहीं एक जुनूँ है
जिसकी खातिर अब दर्द ही एक सुकूँ है

मौत मुंसिफ थी तेरी सो आ गई 'गुलज़ार'
जिंदगी से उसका नाता फिर क्यूँ है,क्यूँ है

वो खुद को मिटाने पर आमादा है ऐ खुदा
मेरे यार की तबीयत आज कुछ यूँ है,यूँ है 

बहुत हुआ कि हौसलों की भी इन्तेहा हो गई 
तमाशों में भी लेके जाता नजर-ऐ-खूँ है,खूँ है 


मर्द

अश्क पलकों पे सूख जायें जिसके उसे मर्द कहते हैं
उसे वो सुकून मुनासिब नहीं होता,जिसे दर्द कहते हैं 

उलझनों में तारीखें बेसबब निकल जाती हैं अक्सर 
हश्र-ऐ-खूँ निभाता है रिश्ते,लोग जिसे क़र्ज़ कहते हैं

कोई रंजिश-कोई शिकवा देहलीज लांघ नहीं पाता
करीब रहा जो एक शख्स उसके,उसे हमदर्द कहते हैं

निचोड़ कर हथेलियाँ अपनी मैं जुबाँ सिल भी लेता हूँ 
कभी फुर्सत में मिल जाना,बतलाऊँ किसे फ़र्ज़ कहते हैं 


  

Sunday, April 08, 2012

ग़ज़ल

बयान-ऐ-गम पे भी मुक़र्रर-ऐ-इरशाद कहने लगे
एक छोटी सी ख्वाहिश को तुम फ़रियाद कहने लगे

है कौन यहाँ आबाद जरा शक्लें दिखाए मुझे
किसी ने इश्क क्या किया,उसे बर्बाद कहने लगे

दो लफ्ज़ आज भी उधार हैं तुम पर मेरे 'तीर्थराज'
जरा शोहरत क्या मिली खुद को उस्ताद कहने लगे 

Wednesday, April 04, 2012

ग़ज़ल

कुछ-कुछ जो तुम रोज लिखा करते हो
वो कौन है भला जिसको अता करते हो

जुबाँ फिर क्यूँ जाती है मजलिस में तेरी 
सुना है खामोशियों में खूब कहा करते हो

ना कोई ख्वाब ना किसी उम्मीद की गुंजाईश
फिर इन रेशमी धागों से क्या बुना करते हो  

खुद तो कुफ्र के मुलाजिम बन के हो बैठे
मियाँ किसकी खातिर इतनी दुआ करते हो 

एक लम्हा था साँसों का वो गुजर गया 'तीर्थराज'
माजी की सड़क पे राह जिसका तुम तका करते हो  



Saturday, March 31, 2012

ग़ज़ल


कहो इतनी अदाएं तुम लाते हो कहाँ से
ठिकाने यहीं हैं तेरे,या किसी और जहाँ से 

माँ बचपन में कहती थी परियों के किस्से 
कहीं तुम उतर तो नहीं आई हो आसमाँ से 

कान में जाके कहा मैंने जो कुछ उनसे 
हवा भी शर्मा कर भाग निकली वहाँ से 

नजाकत ऐसी ही हैं कुछ उस माहजबीं की 
परवाना बच के जाए भी तो किधर शमाँ से 

नुक्कड़ पे मजमों की शिकायत बुजुर्गों को है 
वो छत पे निकल आये,लोग गुजरें कैसे यहाँ से 


Wednesday, March 28, 2012


नशा जवानी का सर चढ़ के बोले जब
तो लड़खड़ाते कदम कहाँ संभल पाते हैं

एक निवाला इश्क का हमने भी चख लिया
अब ना निगल पाते हैं औ' ना उगल पाते हैं 

Tuesday, March 27, 2012

ग़ज़ल

बहुत सुना कि तुम सब चुप-चुप के सहते हो
लो आज हूँ मौजूद,कहो कि क्या कहते हो 

सियासी नुस्खे चाहतों में ना आजमाया करो
तुम तो हर शाम एक नया हमसफ़र चुनते हो 

ये भी क्या हुनर है ज़माने से मुखातिब होने का 
हिजाब शराफत का रख कर क्यूँ चेहरे बदलते हो

कोई मिल गया "तीर्थराज" बेपैमाने पिलानेवाला तुम्हे
जो आजकल महफ़िल-ओ-मैखाने में नहीं मिलते हो 



ग़ज़ल


गुस्ताखियों की तुम आजकल शिकायत नहीं करते
खफा हो गर हमसे फिर क्यूँ कर अदावत नहीं करते 

तुम अपनी तारीफ में कहो तो गजलें लिख डालूं हज़ार
तर्ज़-ऐ-लफ्ज़ पे कायम रहे,हम ऐसी मोहब्बत नहीं करते 

आवारगी बेशक अपनी आदतों में शुमार है,लेकिन
शौक़ीन मिजाज हैं,हर हसीं चेहरे से शरारत नहीं करते

ये चेहरे की रंगतों पे कजरारे बादल जो छाये हैं मेरे
पूछते हैं मोहल्लेवाले,भला क्यूँ हजामत नहीं करते

कोई उम्मीद-ओ-हसरत बचाकर रक्खो नहीं "तीर्थराज"
दफ्न हो जाने तक ख्वाइशों की हिफाजत नहीं करते 


Friday, March 23, 2012

इन्कलाब का ये क़र्ज़ कुछ-एक फूल चढ़ाकर चुकाया नहीं जाता 'तीर्थराज'... 
हिन्दोस्ताँ आज भी नहीं समझा "सियासत" औ' "शहादत" में फर्क कितना है   


Thursday, March 15, 2012

जी तो बहुत था कि हम भी दावतों पे बुलाते तुम्हे
पे मेजबानी की रस्म शायद मुकम्मल ना थी हमें  


Wednesday, March 14, 2012

"तीर्थराज" तुम भी शायर बड़े अजीब लगते हो
किसी पे मरते हो औ' किसी को मार रखते हो 


Tuesday, March 13, 2012

वो बारिश में क्या निकले मौसमों ने अंगड़ाई भर ली
देखा ना था उन्होंने यूँ मेहताब को भीगते हुए कभी 

Monday, March 12, 2012

तुम  खुद को भूल जाने की कीमत अदा कर रहे थे मुझे   
बेखबर इतना नहीं मालूम 'तुझसे' नायाब रकम क्या होगी 


Sunday, March 11, 2012

मोहब्बत औ' क़यामत में बेवजह दिल ही तो पिसता है 
एक धडकनें चलने पे आती है दूजी धडकनें थमने के बाद 


Saturday, March 10, 2012

"बूँद-बूँद जिंदगी"-THE SPIRAL OF LIFE

लम्हों की स्याही में तसव्वुर का ब्रुश डुबोकर 
कुछ अशार हमने जब वक़्त की जमीं पे उकेरे
तो यूँ लगा जैसे सदियों से मुरझाई पड़ी उस मिट्टी को
किसी ने बूँद-बूँद जिंदगी पिलाई हो |
एकदम से उस मिट्टी ने अपने फेफड़े निचोड़ कर एक लम्बी सी आह भरी 
और सारे अशार कोंपल की मानिंद फूटकर अटखेलियाँ करने लगे|
आफ़ताब की लौ ने उनके बदन को सेंका
तो मेहताब ने रूह में रंगतें भरीं |
सेहरा-ओ-शब् की आदतों तले वो हरे-भरे फुनगे
जो कल तलक घुटनों पे रेंगते थे
आज ढेले की बैसाखी छोड़ अपनी जड़ों पे उठ खड़े हुए |
हर-एक कोंपल अब पेड़ बन चुका था |
उसकी एक शाख पे नज्मों का जोड़ा
घोंसला बनाये-डेरा डाले झूमता रहता था |

शोहरत की आंधी को ये खबर पहुंची 
तो उसने पत्ता-पत्ता बटोर कर अपनी जेबें भर ली |
आफ़ताब किसी सुबह फिर उनसे मिलने आया 
तो उसकी आँखें चौंधियां उठीं |
वो पेड़ बाल मुंडवाकर चाणक्य के अहम् को भी चुनौती दे रहे थे |
नज्मों का वो जोड़ा भी नहीं था |
"शायद शोहरत की आंधी में उसके तिनके बिखर गए होंगे,बँटोरता होगा"
ये सोचकर बेचारा आफ़ताब भी गोधुली तले सर छुपाने लौट पड़ा |

मेहताब की बड़ी अच्छी बनती थी उन पेड़ों से अब,
एक-एक फुनगी सितारों तक पहुँच गयी थी |
वो नज्मों का जोड़ा भी 
वहीँ कहीं पंख फडफडाता मिल जाता उसे |

पर वो मिट्टी फिर उदास हो चली थी
जिनकी धमनियां चूसकर वो कोंपल फूटे थे |
अक्ल की बारिश ने थोड़ी-बहुत फुहारें उधार दीं उन्हें
तो वो मुरझाये रुखसार की झुर्रियों को सींचने में खर्च हो गए |
सफेदी की चादर ओढ़े,गिनी-चुनी दो-चार बत्तीसी दिखाता
काँपता रहता है कहीं |
लम्हों की स्याही भी ख़त्म होने चली है,
ठूंठ पड़े उस ब्रुश पे अब रंग चढ़ते ही नहीं |

एक नए कोंपल ने फिर आवाज़ लगायी है आँगन में,
उसी बूढ़े बरगद की मूछों से निकल कर |
पिलाने फिर किसी मिट्टी को
"बूँद-बूँद  जिंदगी"


Monday, March 05, 2012

नज़्म

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

तुम नहीं थी साथ लेकिन फिर भी मेरे हर तरफ
रहता था बिखरा-बिखरा एक तेरा ही निशाँ 
जाने कितने दौर गुज़रे तुम नहीं आई मगर
फिर भी जो रक्खा संभाले,है वही ये आशियाँ 

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू पारिज़ाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

चाह ना थी परियों की ना आरजू-ऐ-हुस्न थी
तेरी एक झलक को हम थे ताकते जो रास्ते
आज उन सब रास्तों की मंजिलों जो हैं मिली
कैसे करूँ उन चाहतों को लेकर मैं तुझसे बयाँ

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

देखता था छुप-छुप मैं भी शमा की आड़ से
तकती थी जब-जब तुम परदे की दीवार से
धूप में मेहताब की रंगतें जला करती थीं
संग लेकर सारे इन धडकनों के भी अरमाँ 

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ 

आज भी उन लम्हों के मंजर मेरी आँखों में हैं
आसमाँ की शाख पे उडती तितलियों की तरह
बेनियाज़ी से तेरी हमें कोई गिला नहीं
कह ना देना बस कभी मैं हूँ तेरे लिए अंजान

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

नज्म है ये सिलसिलों के उलझे अल्फाज़ से बनी 
वक़्त की देहलीज पर झरोखों का दस्तक हो जैसे
एक-एक अशआर हैं चुन-चुन कर लिखे गए
बना रहा था "तीर्थराज" ख्वाबों का कोई गुलसितां

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ  




Saturday, March 03, 2012

कोतवाली वो हमें ले गए थे आशिकी का मुजरिम बनाकर 
दिल चुराने के इल्जाम में फकत  खुद ही गिरफ्तार हो गए 


Friday, March 02, 2012

तेरे चेहरे की कारीगरी में खुदा ने एक भूल कर दी
बेपनाह हुस्न के संग बेनजर तिल भी दिया होता 


Tuesday, February 28, 2012

ग़ज़ल

अपनी जहानत पे कुछ ऐतबार किया करो
हर फैसले सिक्के उछाल के ना लिया करो

हार-जीत की तर्ज़ पे गुजारी नहीं जाती ये 
जिंदगी है आखिर,बेबाक हो के जिया करो

एक उम्र आएगी बाँछों पे सफेदी छाने की 
रंगीनियों को तब तलक तवज्जो दिया करो

ना-आशना सी होंगी जनान-खाने की दीवारें 
दौर-ऐ-जवानी में ही बेसबब इश्क किया करो

कड़वाहटें पिलायेंगे चारागर नुस्खे निकाल के
मैकश नजरों से तब तलक जी-भर पिया करो

क़यामत खुदा की हथेली पे रक्खी है "तीर्थराज"
तुम अपने हाथों अपना कफ़न ना सिया करो 
 


Monday, February 27, 2012

'अक्स' की शाम


रिश्ते बहुत निभाए हमने पे तुम जैसा हमराही कोई मिला नहीं
छोटे को फकत उस्ताद कह दे,ऐसा बड़ा भाई कोई मिला नहीं 

कुछ हाफिज़-ऐ-सुखन मिले थे राह-ऐ-गुज़र में इमाम बने हुए  
शागिर्द हम आप जिसके हो जायें वो हातिम ताई कोई मिला नहीं 

सिफत एक ढूंढ रहा था बड़ी मुददत से तेरी तारीफ में लेकिन
नज्में तेरी ही मिलीं दो-चार खय्याम-ऐ-रुबाई कोई मिला नहीं 

तकल्लुस-ऐ-तीर्थराज की परवरिश तुम यूँ ही करते रहना "अक्स"
कहीं तुझसे बिछड़ के हम ना कह दें,'ऐसा हरजाई कोई मिला नहीं"


Thursday, February 23, 2012

जी तो करता है अभी शह औ' मात कर दूँ
पे मैदान-ऐ-मोहब्बत में हम चालें नहीं चलते 


Tuesday, February 21, 2012

ग़ज़ल

माना अशार अपने फरिश्तों से पढवाया करते हैं
दीवान आप अपना हाफिजों से लिखवाया करते हैं

हर तारीफ की इल्तेजा पे कलाम ना फ़रमाया करो
शायर बादशाह से भी फरमाईशें बुलवाया करते हैं   

जागीर-ऐ-सुखन  जरा सहम के खर्चिये "तीर्थराज"
नायाब अशर्फियाँ खैरातों में नहीं लुटवाया करते हैं 


मैं किस से हूँ वाबस्ता अजीज दारों को है मालूम
तुम कोई कबूतर मेरे नाम से शहर में उड़ा लेना   
     

Monday, February 20, 2012

कदीम तमगों की खनक जार-जार हो के उठती है
कुछ नयी शोहरतें आसमाँ से नोचनी पड़ेंगी अब  


Friday, February 17, 2012

ग़ज़ल

वो जिसका हर नींद में नाम-ओ-निशाँ होता है
एक ख्वाब है जो अक्सर होश-ऐ-जवाँ होता है 

ना दे शुरूर मुझे इस पैमाने का अब और साकी
छूके लब गुजरे तो फिर वही हाल-ऐ-बयाँ होता है 

नजदीकियां बढाने के बहाने तब होते हैं जलूस 
कोई फासला जब-जब  कदम-ऐ-दरमयां होता है

चेहरे की लकीरों तक  को हर्फ़ दे डाले "तीर्थराज"
औ' उनकी खातिर ये बस मौज-ऐ-दास्ताँ होता है 


इस दफा अलग मौज-ऐ-दास्ताँ है
गर्दिशों से मुकम्मल  जहां  बनाने की 

Tuesday, February 14, 2012

बारह घड़ियाँ सहेज कर आफताब भी निखरता है
तवज्जो जबरन फिर चिराग-ऐ-महताब को क्यूँ है 

ग़ज़ल

सच है खुद्दारी में कोई वफायें निभा नहीं सकता
तर्ज पे हुक्मरानी के ख्वाहिशें फरमा नहीं सकता

बड़ी मुददत हुई जालिम आशिकी फ़साना ना सुना
मजनू कहाँ जो सरे बाज़ार सितम उठा नहीं सकता 

यूँ होंगे बहुत इंसानी चौखटों पे सजदे नवाने वाले 
इन  हुस्न-ऐ-मुसाहिबों को काबा रिझा नहीं सकता   

फ़रिश्ते सिफारिश ले आयें,जबस  मुमकिन है "तीर्थराज"
वरना दिल्लगी की खातिर मैं औ' सर झुका नहीं सकता 

Friday, February 10, 2012

याँ पहले ही बंटवारे क्या कम थे..
जो तसव्वुर पे छुरियां चलाने लगे  

Tuesday, February 07, 2012

यूँ अपने गम से वल्लाह क्या कम हैं बिस्मिल
जो फकत गैर के तमाशों में शरीक होते फिरें 

ग़ज़ल

हो के रू-ब-रू गर धड़क जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है
फिसलकर जिस्म से निकल जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है 

कर के रुक्सत महफ़िल को जब उठती नजर तुम पर झुके
जुम्बिश धडकनों में हो जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है

लगा कर रूह से,उनकी जो हमने दो अंगड़ाईयाँ चुरा ली 
इस पे आवारा कहा जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है 

उँगलियों की नोक से बदन की लिखावटें पढ़ डालीं तमाम
फिर भी अयाना कहा जावे  तो क्या कीजै,दिल ही तो है 
 
दीद में उम्रें गुजारीं पलकों से पलकें मूँद कर 
नशा आँखों में उतर आवे तो क्या कीजै,दिल ही तो है

जौक-ऐ-सुखन जबस रग-रग में दौड़े है "तीर्थराज"
पे आशिकाना कहा जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है 


Tuesday, January 31, 2012


खडका-ऐ-खुदा था उसमे,तो कुफ्र-ऐ-जानिब भी जिन्दा था
मुल्क-ऐ-हिंदी-ओ-उर्दू में एक फारस-ऐ-साहिब भी जिन्दा था 

शायरी का हुनर कुछ फरेब सा लगने लगता है "तीर्थराज"
सुनता हूँ जब किसी दौर में कोई "ग़ालिब" भी जिन्दा था  

Monday, January 30, 2012

मै जब-जब मैखाने हो आता हूँ,तेरा ख्याल ही मुकम्मल रहता है
कभी पूछूँगा साकी से,"उसके तस्सवुर का प्याला बनाते कैसे हो"

Sunday, January 29, 2012

वो सांस भी ले तो हमें खबर हो जाती है "तीर्थराज"
हमने हवाओं को अपना मुखबिर जो बना रक्खा है 

Saturday, January 28, 2012

ताबीर...

ये तुम्हारा चेहरा है... 
कि जैसे फ़रिश्ते का हो अक्स कोई 

ये तुम्हारी आँखें हैं...
कि जैसे सागर से किसी ने दो झीलें चुरा ली हों

ये तुम्हारे गेसू हैं...
कि जैसे शोख घटाओं का बिखरा हो आँचल कहीं

ये तुम्हारी पलकें हैं ...
कि जैसे पैमाने से कुछ-एक बूँद छलकता नशा

ये तुम्हारी खुशबू है...
कि जैसे अर्क की एक-एक बूँद ने सहस्रों गुलाब खिलाये हों

ये तुम्हारी नजर है...
कि जैसे आसमाँ फलक से जमीं पे झुका हो कहीं 

ये तुम्हारे बदन की नक्काशी है...
कि जैसे खुदा की फुर्सत-ऐ-तराश का नमूना

ये तुम्हारे चर्चे हैं...
कि जैसे महताब की लौ में जुगनुओं की गुफ्तगू 

ये तुम्हारी आवाज़ है...
कि जैसे अनकही आरजू में दबी हुई चंद ख्वाहिशें 

ये तुम्हारी चूड़ियाँ हैं...
कि जैसे कमल की पंखुड़ियों पे पहली बारिश की छम-छम 

ये तुम्हारे होठ हैं...
कि जैसे सुबह-सुबह दूब की नोक पे ओस की एक बूँद 

ये तुम्हारी अदाएं हैं...
कि जैसे तितलियों का झूम के मचलना 

ये तुम्हारा एहसास है...
कि जैसे जाड़े की सुबह छूके पानी,बदन की सिहरन 

ये तुम्हारी हँसी है...
कि जैसे कोंपल से फूटते अंकुर का वो उन्माद 

ये तुम्हारा साज है...
कि जैसे मीर की ग़ज़ल में रक्खा एक-एक लफ्ज़ 

ये  तुम्हारी बिंदिया है...
कि जैसे सितारों के बीच वो तन्हा रौशन सा चाँद

ये तुम्हारी मौजूदगी है...
कि जैसे "तीर्थराज" ने ख्वाबों की एक ताबीर लिखी हो     


Friday, January 27, 2012

चलो तुमने कहा तो फिर स्याही लगायी है उँगलियों पे
एक गुज़ारिश है कि कलम चलाने की वजह भी दे दो 

Wednesday, January 25, 2012

गणतंत्रता की वेदी पर जो प्रसून चढ़ाये जाते हैं
नहीं नीर सिंचित अंतर के रक्त जलाये जाते हैं

शासन-ऐ-हिंद के परदे अब चीथड़ों में हैं
आवाम रही हुंकार,हम आते हैं-हम आते हैं 
यूँ बार-बार अलफ़ाज़ जड़ने को मजबूर ना कर "साकी"
नशे की दुकानें उजड़ जायेंगी,मेरी एक ग़ज़ल के साथ   

Monday, January 23, 2012

उसका चेहरा नहीं,हया की एक "दीवार" है 
मैं कुछ "ईंटें" बस निकाल लेना चाहता हूँ 

Wednesday, January 04, 2012

बहुत हुई ये मस्तियाँ,ये कारस्तानी,ये बेसबब मुलाकातें 
जिंदगी तरस रही है,एक नजर उसे भी मिल लिया करो 

Monday, January 02, 2012

सपनो का वो बसा-बसाया गुलशन कहीं खो गया है
अरमानो से सींच के रक्खा चमन कहीं खो गया है

मोहब्बत जिस शख्स से थी बेशुमार अब नहीं मिलता
"तीर्थराज" के चर्चों में ये "संगम" कहीं खो गया है