Sunday, September 23, 2012

बेतलब गुफ्तगू, कौन पराये से करता है
मेहमाँ-नवाजी जहाँ, किराये पे करता है

आदमी अपनी गिरफ्त में भी महफूज़ नहीं 
अँधेरे से बच निकले तो शक साये पे करता है

ज़रस से उठती है रह-रह के इंतबाह 
दम भरने तलक ही दूर है सिम्तुर्रास 

Friday, September 21, 2012

किनारे खड़े रहकर, शेखियां ना बघारो
समंदर बताएगा कौन कितने पानी में है 

Thursday, September 20, 2012

किताबी जज्बात में हैं मशरूफ सफों के दरमयां
मुझसे अब दिल-ऐ-आशना की उम्मीद ना कर 

Tuesday, September 11, 2012

दीवारों की कैद में किसी दिन ये मकाँ रोयेगा
कब गुल-ऐ-रंज से मुकम्मल गुलिस्ताँ रोयेगा

सलाखों में जब्त है हर तरफ अवाम 'तीर्थराज'
अब जम्हूरियत की दहलीज पे हिन्दोस्ताँ रोयेगा

Monday, September 10, 2012


हिजाबों में भी उनसे आखिर क्यूँ मिले कोई
सुकूँ मुनासिब हमें है केवल तो क्यूँ जले कोई 

खुलेआम होता है यहाँ हर गुनाह मजलिस में
फिर खताएं इश्क की, पर्दे में क्यूँ करे कोई

कुछ ख्वाब देखे थे हम ने कभी 
मुदत्तों से नींद नहीं आती फिर 

हाँ किसी दिन मौसमों से कहना अपने मन की 
देखते हैं, मर्ज़ी-बेमर्ज़ी बारिशें होती हैं कि नहीं 

ये ना समझो तेरी बेनियाज़ी का एहसां लेता हूँ
गुरूर तुम इसलिए करते हो कि मैं शह देता हू 

पूछा, कितनी दूर हैं तेरी जुबाँ से लब मेरे?
अब चुप रहें या फूंक से ही गुफ्तगू कर लें  

Friday, September 07, 2012

फिर किसी ने छेड़ दी जिक्र-ऐ-मोहब्बत
फिर लब पे उस माबूद का नाम आ गया  

ग़ज़ल


इक जरा सी तूल क्या दी, तुम पतंगें उड़ाने लगे
जुर्रत प्यादों की हुई, वजीर से नजरें मिलाने लगे

वफ़ा में हैं कि कद्र है ना कोई तलब-ओ-उम्मीद
खुदा को छोड़ हम कहाँ सर अपना झुकाने लगे 

दूसरे सिरे पे धागे के तुम भी बंधे थे 'तीर्थराज'
बुझती लपट को फूंक देकर क्यूँ सुलगाने लगे