Saturday, July 28, 2012

विभा के तीर पर बिजलियाँ कड़कड़ाने लगी हैं
समर के सिन्धु में शक्तियां लड़खड़ाने लगी हैं 

उठो पार्थ...!! गरज कर गांडीव संभालो...
समय की कोख में चुनौतियां अकुलाने लगी हैं 

Thursday, July 19, 2012

काश पंडित ने गुरुकुल में अजाँ भी सुनाई होती
लिखावटें कभी-कभी हमें उल्टी भी लिखाई होती

ग़ालिब तेरी जमात का मैं सबसे अजीज शहजाद होता
किसी ने गर 'तीर्थराज' को थोड़ी उर्दू सिखाई होती  


ग़ज़ल


पूछूं तो फिर शर्मा के जो इनकार करते हो
हो ना हो तुम भी किसी से प्यार करते हो

किस-किस से छुपाओगे ये चेहरे की रौनकें
खामखा  यारों की चुटकियाँ बेकार करते हो

हर नजर में होती है यहाँ रंजिश घुली हुई
हसरतों का क्यूँ अपनी तुम इश्तेहार करते हो

खूब चढ़ा है अबके ये हिना का रंग 'तीर्थराज'
मोहब्बत एक उसी शख्स से बार-बार करते हो 


बेशर्म देख रहे थे जो हया उसने आँचल में छुपा रक्खी थी
फूटपाथ पर किसी अबला ने बच्ची सीने से लगा रक्खी थी

अँधेरा होते ही चंद सिक्कों ने उससे छीन लिया 'तीर्थराज'
जो चार ईंटों की छत उसने सुबह से सर पे उठा रक्खी थी


ग़ज़ल


तुम हमसे यूँ बेरुखी की आदत बदल डालो
जरा देर ही सही पर ये हकीकत बदल डालो

हम हुस्न्फरोश इस कदर खिंचे चले आते हैं
हो सके तो तुम अपनी ही सूरत बदल डालो

क़ुबूल कर खुदा तुम्हे फरिश्तों से बैर किया
अब कहते हो रस्म-ऐ-इबादत बदल डालो

पी लेते हो ओक से गर पैमाना टूट जाता है
जो शै लाचारी बन बैठे वो आदत बदल डालो

बहुत हुआ कि खैरात में लुटाते रहे 'तीर्थराज'
तुम भी वफाओं की अपनी कीमत बदल डालो



इत्तेफाकन अब्बा की मैय्यत उसके करीब ना थी
उस रोज भी कोई बात दिन में अजीब ना थी....

वो डिबिया जलाकर किताबें चाटता रहा रात भर
शाम के निवाले में जिसको दो रोटी नसीब ना थी 



सरकारी दफ्तर की तरह होते हैं यहाँ चाहतों के सिलसिले
तमाम उम्र गुज़र जाती है अक्सर अर्जियां टलते-टलते


झाँक कर चीथड़ों से लाचारगी नुमाइश करती है
इंसानों की भीड़ से इंसानियत सिफारिश करती है

काँप जाती है रूह मेरी जब 'टेशन के किनारे पर
हाथ उठा मुफलिसी,जिंदगी की गुजारिश करती है