Saturday, March 31, 2012

ग़ज़ल


कहो इतनी अदाएं तुम लाते हो कहाँ से
ठिकाने यहीं हैं तेरे,या किसी और जहाँ से 

माँ बचपन में कहती थी परियों के किस्से 
कहीं तुम उतर तो नहीं आई हो आसमाँ से 

कान में जाके कहा मैंने जो कुछ उनसे 
हवा भी शर्मा कर भाग निकली वहाँ से 

नजाकत ऐसी ही हैं कुछ उस माहजबीं की 
परवाना बच के जाए भी तो किधर शमाँ से 

नुक्कड़ पे मजमों की शिकायत बुजुर्गों को है 
वो छत पे निकल आये,लोग गुजरें कैसे यहाँ से 


Wednesday, March 28, 2012


नशा जवानी का सर चढ़ के बोले जब
तो लड़खड़ाते कदम कहाँ संभल पाते हैं

एक निवाला इश्क का हमने भी चख लिया
अब ना निगल पाते हैं औ' ना उगल पाते हैं 

Tuesday, March 27, 2012

ग़ज़ल

बहुत सुना कि तुम सब चुप-चुप के सहते हो
लो आज हूँ मौजूद,कहो कि क्या कहते हो 

सियासी नुस्खे चाहतों में ना आजमाया करो
तुम तो हर शाम एक नया हमसफ़र चुनते हो 

ये भी क्या हुनर है ज़माने से मुखातिब होने का 
हिजाब शराफत का रख कर क्यूँ चेहरे बदलते हो

कोई मिल गया "तीर्थराज" बेपैमाने पिलानेवाला तुम्हे
जो आजकल महफ़िल-ओ-मैखाने में नहीं मिलते हो 



ग़ज़ल


गुस्ताखियों की तुम आजकल शिकायत नहीं करते
खफा हो गर हमसे फिर क्यूँ कर अदावत नहीं करते 

तुम अपनी तारीफ में कहो तो गजलें लिख डालूं हज़ार
तर्ज़-ऐ-लफ्ज़ पे कायम रहे,हम ऐसी मोहब्बत नहीं करते 

आवारगी बेशक अपनी आदतों में शुमार है,लेकिन
शौक़ीन मिजाज हैं,हर हसीं चेहरे से शरारत नहीं करते

ये चेहरे की रंगतों पे कजरारे बादल जो छाये हैं मेरे
पूछते हैं मोहल्लेवाले,भला क्यूँ हजामत नहीं करते

कोई उम्मीद-ओ-हसरत बचाकर रक्खो नहीं "तीर्थराज"
दफ्न हो जाने तक ख्वाइशों की हिफाजत नहीं करते 


Friday, March 23, 2012

इन्कलाब का ये क़र्ज़ कुछ-एक फूल चढ़ाकर चुकाया नहीं जाता 'तीर्थराज'... 
हिन्दोस्ताँ आज भी नहीं समझा "सियासत" औ' "शहादत" में फर्क कितना है   


Thursday, March 15, 2012

जी तो बहुत था कि हम भी दावतों पे बुलाते तुम्हे
पे मेजबानी की रस्म शायद मुकम्मल ना थी हमें  


Wednesday, March 14, 2012

"तीर्थराज" तुम भी शायर बड़े अजीब लगते हो
किसी पे मरते हो औ' किसी को मार रखते हो 


Tuesday, March 13, 2012

वो बारिश में क्या निकले मौसमों ने अंगड़ाई भर ली
देखा ना था उन्होंने यूँ मेहताब को भीगते हुए कभी 

Monday, March 12, 2012

तुम  खुद को भूल जाने की कीमत अदा कर रहे थे मुझे   
बेखबर इतना नहीं मालूम 'तुझसे' नायाब रकम क्या होगी 


Sunday, March 11, 2012

मोहब्बत औ' क़यामत में बेवजह दिल ही तो पिसता है 
एक धडकनें चलने पे आती है दूजी धडकनें थमने के बाद 


Saturday, March 10, 2012

"बूँद-बूँद जिंदगी"-THE SPIRAL OF LIFE

लम्हों की स्याही में तसव्वुर का ब्रुश डुबोकर 
कुछ अशार हमने जब वक़्त की जमीं पे उकेरे
तो यूँ लगा जैसे सदियों से मुरझाई पड़ी उस मिट्टी को
किसी ने बूँद-बूँद जिंदगी पिलाई हो |
एकदम से उस मिट्टी ने अपने फेफड़े निचोड़ कर एक लम्बी सी आह भरी 
और सारे अशार कोंपल की मानिंद फूटकर अटखेलियाँ करने लगे|
आफ़ताब की लौ ने उनके बदन को सेंका
तो मेहताब ने रूह में रंगतें भरीं |
सेहरा-ओ-शब् की आदतों तले वो हरे-भरे फुनगे
जो कल तलक घुटनों पे रेंगते थे
आज ढेले की बैसाखी छोड़ अपनी जड़ों पे उठ खड़े हुए |
हर-एक कोंपल अब पेड़ बन चुका था |
उसकी एक शाख पे नज्मों का जोड़ा
घोंसला बनाये-डेरा डाले झूमता रहता था |

शोहरत की आंधी को ये खबर पहुंची 
तो उसने पत्ता-पत्ता बटोर कर अपनी जेबें भर ली |
आफ़ताब किसी सुबह फिर उनसे मिलने आया 
तो उसकी आँखें चौंधियां उठीं |
वो पेड़ बाल मुंडवाकर चाणक्य के अहम् को भी चुनौती दे रहे थे |
नज्मों का वो जोड़ा भी नहीं था |
"शायद शोहरत की आंधी में उसके तिनके बिखर गए होंगे,बँटोरता होगा"
ये सोचकर बेचारा आफ़ताब भी गोधुली तले सर छुपाने लौट पड़ा |

मेहताब की बड़ी अच्छी बनती थी उन पेड़ों से अब,
एक-एक फुनगी सितारों तक पहुँच गयी थी |
वो नज्मों का जोड़ा भी 
वहीँ कहीं पंख फडफडाता मिल जाता उसे |

पर वो मिट्टी फिर उदास हो चली थी
जिनकी धमनियां चूसकर वो कोंपल फूटे थे |
अक्ल की बारिश ने थोड़ी-बहुत फुहारें उधार दीं उन्हें
तो वो मुरझाये रुखसार की झुर्रियों को सींचने में खर्च हो गए |
सफेदी की चादर ओढ़े,गिनी-चुनी दो-चार बत्तीसी दिखाता
काँपता रहता है कहीं |
लम्हों की स्याही भी ख़त्म होने चली है,
ठूंठ पड़े उस ब्रुश पे अब रंग चढ़ते ही नहीं |

एक नए कोंपल ने फिर आवाज़ लगायी है आँगन में,
उसी बूढ़े बरगद की मूछों से निकल कर |
पिलाने फिर किसी मिट्टी को
"बूँद-बूँद  जिंदगी"


Monday, March 05, 2012

नज़्म

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

तुम नहीं थी साथ लेकिन फिर भी मेरे हर तरफ
रहता था बिखरा-बिखरा एक तेरा ही निशाँ 
जाने कितने दौर गुज़रे तुम नहीं आई मगर
फिर भी जो रक्खा संभाले,है वही ये आशियाँ 

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू पारिज़ाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

चाह ना थी परियों की ना आरजू-ऐ-हुस्न थी
तेरी एक झलक को हम थे ताकते जो रास्ते
आज उन सब रास्तों की मंजिलों जो हैं मिली
कैसे करूँ उन चाहतों को लेकर मैं तुझसे बयाँ

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

देखता था छुप-छुप मैं भी शमा की आड़ से
तकती थी जब-जब तुम परदे की दीवार से
धूप में मेहताब की रंगतें जला करती थीं
संग लेकर सारे इन धडकनों के भी अरमाँ 

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ 

आज भी उन लम्हों के मंजर मेरी आँखों में हैं
आसमाँ की शाख पे उडती तितलियों की तरह
बेनियाज़ी से तेरी हमें कोई गिला नहीं
कह ना देना बस कभी मैं हूँ तेरे लिए अंजान

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ

नज्म है ये सिलसिलों के उलझे अल्फाज़ से बनी 
वक़्त की देहलीज पर झरोखों का दस्तक हो जैसे
एक-एक अशआर हैं चुन-चुन कर लिखे गए
बना रहा था "तीर्थराज" ख्वाबों का कोई गुलसितां

ऐ नगर-ऐ-फिरदौस की तू परीजाद सुन अभी
ये मेरे दिल की है जो अनकही सी दास्ताँ  




Saturday, March 03, 2012

कोतवाली वो हमें ले गए थे आशिकी का मुजरिम बनाकर 
दिल चुराने के इल्जाम में फकत  खुद ही गिरफ्तार हो गए 


Friday, March 02, 2012

तेरे चेहरे की कारीगरी में खुदा ने एक भूल कर दी
बेपनाह हुस्न के संग बेनजर तिल भी दिया होता