Monday, July 25, 2011

पुकार

कामायनी में लिखा है...
हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँव
एक पुरुष भीगे नैनो से                             
देख रहा है प्रलय प्रवाह...

जयशंकर प्रसाद ने जब ये पंक्तियाँ लिखी थीं तब शायद हमारा जन्म भी नहीं हुआ था,परन्तु जिस प्रलय प्रवाह की ओर वह इंगित कर रहे थे वह कहीं ना कहीं आज भी प्रवाहित है| 
 ये कैसी विडम्बना है...
"शक संदेहों के डेरे हैं बाजारों में,
भाई भाई से अपनी नजर चुराता है
पहचान पडोसी परदेसी में शेष नहीं
घर का कुत्ता घर वालों पर गुर्राता है"

मैं आपके समक्ष एक टिपण्णी प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जिसका शीर्षक है "पुकार"...
'पुकार' क्रंदन है इतिहासों का
तो वर्तमान का वंदन है
सुन्दर भावी अरमानो का
आमंत्रण है,अभिनन्दन है..

 पुकार एक विनती है...उन लफ़्ज़ों की जो कभी कहे नहीं जा सके, उन अरमानों की जो कभी पूरे नहीं हुए,उन हैसलों की जिनकी हौसलाफजाई कभी हुई ही नहीं,और सबसे अहम् उन चीखों की जिनके निनाद कभी सुने नहीं गए| पुकार की प्रस्तुति है...

रे मनुज,उठ जाग और देख..
तिमिर काटकर सूर्य है अब नीलगगन में बढ़ रहा
तू निशा की पाँख पकडे,किस स्वप्न में चल रहा
सहस्रों की भीड़ हो बेकल तुझे पुकार रही
बेरंग सी ये जमीं महरूम नूर से हो रही
सत्ता के सम्राटों का मच रहा कोहराम है
जठरानल की इस लौ में झुलस रहा आवाम है

 जिस देश की सत्तर प्रतिशत जनता दो रोटी के आसरे में अपना दिन गुजार देती है उसे हम globalisation का पाठ पढ़ते हैं| जहाँ एक ही रोटी के लिए एक कुत्ता और एक बच्चा लड़ पड़ते हैं,फूटपाथ पर सोती हजारों जिंदगियां अय्याशों के गाड़ियों की मोहताज हो जाती हैं उन्हें आप nuclear deal का आसरा देकर ये समझाते हैं कि हम एक विकासशील देश में पल रहे हैं| फिर कोई क्यूँ ना कहे...
"लपक चाटते जूठे पत्तल 
जिस दिन देखा मैंने नर को
जी में आया,क्यूँ ना आग लगा दूँ
आज इसी दिन दुनिया भर को.."
मित्रो,इन्हें क्या पता कि GDP किस चिडया का नाम है और भारतीय अर्थव्यस्था दिन रात कैसी करवटें बदल रही है| 
तब कहता हूँ..
कहीं बिलख-बिलख कर भूख मासूमों को खा रही
और कहीं अनगिनत अधरों पर है क्षुधा इठला रही
परमाणुओं की होड़ में दिवालिये हम हो रहे
क़र्ज़ के आगोश में हैं चीथड़ों संग सो रहे
वैश्वीकरण की आड़ में नग्नता का नाच है
जाने किस प्रगति को यह कह रहा विकास है
बोतलों में ढलकर यहाँ सभ्यता पिघल रही
बेआबरू होकर हया बाज़ारों में बिक रही
अबलाओं के चीरहरण से लज्जा नहीं सिसकती है
नर-दानवों के इस खेल में हैवानियत सिर्फ हंसती है.
sharm आती है मुझे यह कहने में कि मैं एक प्रजातंत्र में रहता हूँ| कैसा प्रजातंत्र...जहाँ जनता के लिए किये जानेवाले हर फैसले बंद कमरों में लिए जाते हैं,बाहर वालों को नजरंदाज कर| 
मित्रो,"यह क्रंदन है इतिहासों का,तो वर्तमान का वंदन है.."| आज तक हमने दुनिया को सर्वश्रेष्ठ तकनीक वाले अभियंता दिए हैं...परन्तु आज हमारे अपने देश को नेताओं की जरूरत है,वैसे नेताओं की जिनमे कठोर फैसले लेने की काबिलियत हो...नहीं तो कल फिर कोई चिदम्बरम यह कहते नजर आयेंगे कि P.J थोमस ने अपने cv में यह नहीं लिखा था कि वो भ्रष्ट हैं...देश के तीसरे सबसे बड़े मंत्रालय का रेल बजट सिर्फ इसलिए सुना जायेगा कि उसमे श्री लालू यादव की ठिठोली होगी...कल फिर कोई A Raja अराजकता फ़ैलाने की होड़ में सारी सीमाएं लांघ देंगे...दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री का affidavit खुद उनका सर्वोच्च न्यायालय मांगेगा.. और फिर कोई 'सुषमा स्वराज' यह कहती नज़र आएगी  "प्रणव दा...गुस्सा मत करिए,शुरुआत तो आपने की थी...हम तो बस अनुसरण कर रहे हैं"| 

तब मैं कहना चाहूँगा...
नज़र फेरकर देख दिल्ली,तू कहकहों में पल रही
धमाकों की गूँज में खामोश हो रही है हँसी
मनुज तेरी ही भुजा की थाह ये जन चाहते हैं
नहीं दया की भीख,समर्थित प्रण का रण मांगते हैं
देख इन पलकों पर हैं जो स्वप्न निश दिन पल रहे
होठ हैं खामोश लेकिन ये मन ही मन कह रहे
चरमराती हड्डियों की ये चरम चीत्कार है
सुन मनुज ये बेबस होकर रही तुझे पुकार है
अर्जुनो की भीड़ में कर्ण खुद को मान तू
है पुरुष विभ्राट नरता का हो सम्मान तू
है पुरुष विभ्राट नरता का हो सम्मान तू||


Thursday, July 21, 2011

ग़ज़ल

बातें अब घर-घर होने लगीं थी हमारी आशिकी की
उसकी बदनामियों के डर से उस गली में जाना छोड़ दिया

लोग राह चलते भी कहने लगे थे,"क्या बात है मियां" 
सो उसने नकाब के पर्दों में भी मुस्कुराना छोड़ दिया

महफिलों में मिलती नजर तो भी जमाने को ऐतराज़ था
हमने भी खफा होकर हसीनो से नजरें मिलाना छोड़ दिया

एहसास है बस एक माँ को मेरी चाहत की शिद्दत का
वैसे भी औरों को हमने कब का समझाना छोड़ दिया

मुशायरों  को  डर  था मैं गैरमौजूद ना हो जाऊं कहीं 
कहने लगे थे कुछ लोग,'तीर्थराज' ने गजलें बनाना छोड़ दिया  

Tuesday, July 19, 2011

ग़ज़ल

मुंडेर पे अब कबूतरों के घोंसले नहीं मिलते
शहरी परिंदे लगता है 'पर' हिलाना भूल गए हैं

हर किसी के चेहरे पे एक अलग सी मायूसी है
बच्चे गलियों में लगता है खिलखिलाना भूल गए हैं 

रिश्तेदारियां दीवारों से बंटने लगी हैं घर-घर
अब तो इस मकाँ के कुत्ते भी दुम हिलाना भूल गए हैं

कहाँ हैं हर नुक्कड़ पे वो चाय की दुकानें
काबुलीवाले भी मोहल्लों में आवाज़ लगाना भूल गए हैं

कभी सियासी मशवरों के दौर थे,महफ़िलें थीं 
आज-कल बूढ़े भी हुकके गुड्गुराना भूल गए हैं

ना वो चवन्नी है,ना रुपये की सेर भर जलेबियाँ
सिक्के भी नोटों में ढलकर खनखनाना भूल गए हैं

आबरू नुमाइश में  लुट रही मोहताज़ होकर मुफलिसी की
सड़कों पे पलनेवाले अब चेहरे संवारना  भूल गए हैं 

क्यूँ खफा हो इस कदर तुम खुदा से 'तीर्थराज'
ये वही फ़रिश्ते हैं जो अब इन्सां बनाना भूल गए हैं ||