Tuesday, March 22, 2011

ग़ज़ल


दीये की लौ भी बेइन्तहा जलन देने लगी है
मिट्टी की सोंधी महक,अब दीवारों में ढलने लगी है

कल उठता था धुआं उस किनारे से आँगन में
आज कोने-कोने से रोटियां जलने की महक आने लगी है

पत्थरों को बांटकर वो कब के ले गए घरों में अपने
खुदा को बांटने की साजिशें भी अब रोज होने लगी है

गम था,'चमन को सींचने में पत्तियां झड़ने लगी हैं कुछ'
बरसों की मिल्कीयत अब यूँही खैरात में बँटने लगी है ||


Monday, March 14, 2011

संगम...(त्रिवेणियां)

सुबह-सुबह नींद मेरी कह रही थी मुझसे
"रात करवटें बहुत मुस्कुरा कर ली तुमने"

भीगे हुए तकिये को हमने चुपचाप पलट दिया.||


क्यूँ  जलाकर शौक से..
रिमझिम की दुआ करते हो अब ??

मरहम जख्म मिटाते हैं,दाग नहीं.||


माँ ने आँगन से आवाज़ लगायी..
"लाओ तुम्हारे कुरते के दाग साफ़ कर दूं"

हमने सहजता से कहा,"दामन खुरच रहे हैं अभी".||


तमन्नाएं आज फिर कह रही थीं हंसकर
तुम्हे अब भी उस नज़र की आस है ??

दो बूँद गिरते ही, आँखें मूँद ली हमने.|| 


कुछ हसरतें उधार मांगी थीं उनसे
पुरानी तस्वीरें थमा गए वो

कहा, 'अठखेलियाँ दुकानों में नहीं मिलतीं'


राह चलते किसी को धर दबोचा
माथे की लकीरें पढ़ीं, सिंहासन दे डाला

भाग्य और पुरुषार्थ में कितना अंतर है 


चश्मे की धूल साफ़ कर रहा था मैं
सोचा, वो नज़ारे और मनहर दिखेंगे

नजरों के धुंधलके को भूल गया था शायद 


बस कि फिर से जिन्दा हो उठता हूँ 
साल में एक दिन इसी रोज़ अक्सर

बाकी  वक्त उम्र गुज़ारने में कट जाता है 


वो ATM के दरवाजे पर बैठकर भीख मांगती है
हरे, पीले और गुलाबी नोट निकलते हैं जहाँ से 

सिक्के निकलते तो शायद उसकी भूख मिट जाती 


सुनकर दो गजलें तौहीन-ऐ-अंदाज़ से कहा उसने
'शायरी आपकी, वजन से महरूम लगती है जनाब'

लम्हों की लौ में सूख जाते हैं, अश्क से भीगे लफ्ज़ 




मेरी रचनायें पढ़कर, अक्सर पूछ लेते हैं लोग
'जी ये हिंदी कहाँ से सीखी आपने, बताएँगे जरा'

'हिन्दोस्ताँ में पैदा हुआ हूँ' यही तशरीह कम है क्या 


वो सियासी अंदाज़ में निभाता है इश्क के दस्तूर भी
शाम से लेकर सेहर तक बदल लेता है महबूब अपने

ये कमबख्त दिल्ली की हवा है, किसी को नहीं बक्शती


देर तलक जगते-जगते लाल नजर थी उसकी
कंधे झुक से गए थे किसी बूढ़े बाँस के मानिंद

कल ही तो स्कूल में दाखिला कराया था उसका 


खींच कर पेंसिल से कुछ लकीरें...आड़ी, तिरछी 
चितेरों की मानिंद तेरा चेहरा बनाने की ठानी 

कुश्ता-ए-खू ठहरे, फिर से ग़ज़ल निकल पड़ी 












Saturday, March 05, 2011

वो भी एक दौर था..!!!
रहते थे बेबाक हम गैरों की सरपरस्ती से 
खुद ही को खुदा मानकर जीते थे मस्ती से
वो भी एक दौर था..!!!

ना काफ़िल-ए-गम  कभी सजाये थे हमने
ना  कभी हँसी से बैर किया करते थे
वो  भी एक दौर था..!!!

यूँ लगता था,जश्न-ए-जहाँ मुकम्मल है हर तरफ
महफ़िल-ओ-मदहोशी की हम शान हुआ करते थे
वो भी एक दौर था..!!!

कहकहों की गूँज में कटती थी शाम-ओ-सहर 
खामोशियों में भी किस्से तमाम हुआ करते थे
वो भी एक दौर था..!!!

जहां को जीतने का शौक कभी आया ही ना जेहन में
क्या बताएं,उस मदरसे के हम ही इमाम हुआ करते थे
वो भी एक दौर था..!!!

अल्फाज़ बयां करने की अहमियत समझी ही ना कभी
इशारों में भी हम यूँ ही बदनाम हुआ करते थे
वो भी एक दौर था..!!!

इस दौर-ए-जहाँ से उम्मीदें तो कब की छोड़ दीं हमने 
खलिश निगाहों में हो,तो अश्कों के जाम हुआ करते थे 
वो भी एक दौर था..!!!

बलंदी की शाख पर अब बैठा है ये शायर जब
रंग-ओ-नूर हैं,कल मसले भी गुमनाम हुआ करते थे
वो भी एक दौर था..!!!







ग़ज़ल 
सलामत-ए-होश में भी हम वो सब कह जाते हैं
यूँ मेरे मदहोश होने का इंतज़ार ना किया कर

मुफलिसी अमीरी से कहती फिरती है रात दिन
ख़ाक में मिल जाओगी,'मेरा दीदार ना किया कर'

पाक हैं हम अपनी नाकामियों के भी संग
ऐ कामयाबी,हराम दिखा यूँ नापाक ना किया कर

'तीर्थराज' सजदे में झुकता है खुदा के ,पाँचों पहर 
मंदिर-ओ-मस्जिद-ओ-गिरजे को यूँ नीलाम ना किया कर.!!!



Friday, March 04, 2011

ग़ज़ल

वो उम्मीदों के फेरे थे या मेरी नज़रों का सूनापन
सच-ओ-फरेब की खबर ही नहीं रही कभी 

हर एक लफ्ज़ पे लगा तेरी, कि तू ही खुदा है
काबा-ए-शरीफ जाने की जेहमत ही न की कभी

यूँ तो आज भी ये लगता है,मेरा वहम ही होगा
मुदत्तों जो बात थी, वो बात भी हुई नहीं कभी 

तेरी गुस्ताखियाँ भी मुस्कुरा कर जो छोड़ दी हमने
काबिल-ए-माफ़ी के तुम काबिल रहे भी न कभी

मत कहो, "आज भी तुम्हारा हूँ मैं" ,'तीर्थराज'
उस रहनुमाई की सोहबत के,लायक ही न थे कभी.||