Tuesday, February 28, 2012

ग़ज़ल

अपनी जहानत पे कुछ ऐतबार किया करो
हर फैसले सिक्के उछाल के ना लिया करो

हार-जीत की तर्ज़ पे गुजारी नहीं जाती ये 
जिंदगी है आखिर,बेबाक हो के जिया करो

एक उम्र आएगी बाँछों पे सफेदी छाने की 
रंगीनियों को तब तलक तवज्जो दिया करो

ना-आशना सी होंगी जनान-खाने की दीवारें 
दौर-ऐ-जवानी में ही बेसबब इश्क किया करो

कड़वाहटें पिलायेंगे चारागर नुस्खे निकाल के
मैकश नजरों से तब तलक जी-भर पिया करो

क़यामत खुदा की हथेली पे रक्खी है "तीर्थराज"
तुम अपने हाथों अपना कफ़न ना सिया करो 
 


Monday, February 27, 2012

'अक्स' की शाम


रिश्ते बहुत निभाए हमने पे तुम जैसा हमराही कोई मिला नहीं
छोटे को फकत उस्ताद कह दे,ऐसा बड़ा भाई कोई मिला नहीं 

कुछ हाफिज़-ऐ-सुखन मिले थे राह-ऐ-गुज़र में इमाम बने हुए  
शागिर्द हम आप जिसके हो जायें वो हातिम ताई कोई मिला नहीं 

सिफत एक ढूंढ रहा था बड़ी मुददत से तेरी तारीफ में लेकिन
नज्में तेरी ही मिलीं दो-चार खय्याम-ऐ-रुबाई कोई मिला नहीं 

तकल्लुस-ऐ-तीर्थराज की परवरिश तुम यूँ ही करते रहना "अक्स"
कहीं तुझसे बिछड़ के हम ना कह दें,'ऐसा हरजाई कोई मिला नहीं"


Thursday, February 23, 2012

जी तो करता है अभी शह औ' मात कर दूँ
पे मैदान-ऐ-मोहब्बत में हम चालें नहीं चलते 


Tuesday, February 21, 2012

ग़ज़ल

माना अशार अपने फरिश्तों से पढवाया करते हैं
दीवान आप अपना हाफिजों से लिखवाया करते हैं

हर तारीफ की इल्तेजा पे कलाम ना फ़रमाया करो
शायर बादशाह से भी फरमाईशें बुलवाया करते हैं   

जागीर-ऐ-सुखन  जरा सहम के खर्चिये "तीर्थराज"
नायाब अशर्फियाँ खैरातों में नहीं लुटवाया करते हैं 


मैं किस से हूँ वाबस्ता अजीज दारों को है मालूम
तुम कोई कबूतर मेरे नाम से शहर में उड़ा लेना   
     

Monday, February 20, 2012

कदीम तमगों की खनक जार-जार हो के उठती है
कुछ नयी शोहरतें आसमाँ से नोचनी पड़ेंगी अब  


Friday, February 17, 2012

ग़ज़ल

वो जिसका हर नींद में नाम-ओ-निशाँ होता है
एक ख्वाब है जो अक्सर होश-ऐ-जवाँ होता है 

ना दे शुरूर मुझे इस पैमाने का अब और साकी
छूके लब गुजरे तो फिर वही हाल-ऐ-बयाँ होता है 

नजदीकियां बढाने के बहाने तब होते हैं जलूस 
कोई फासला जब-जब  कदम-ऐ-दरमयां होता है

चेहरे की लकीरों तक  को हर्फ़ दे डाले "तीर्थराज"
औ' उनकी खातिर ये बस मौज-ऐ-दास्ताँ होता है 


इस दफा अलग मौज-ऐ-दास्ताँ है
गर्दिशों से मुकम्मल  जहां  बनाने की 

Tuesday, February 14, 2012

बारह घड़ियाँ सहेज कर आफताब भी निखरता है
तवज्जो जबरन फिर चिराग-ऐ-महताब को क्यूँ है 

ग़ज़ल

सच है खुद्दारी में कोई वफायें निभा नहीं सकता
तर्ज पे हुक्मरानी के ख्वाहिशें फरमा नहीं सकता

बड़ी मुददत हुई जालिम आशिकी फ़साना ना सुना
मजनू कहाँ जो सरे बाज़ार सितम उठा नहीं सकता 

यूँ होंगे बहुत इंसानी चौखटों पे सजदे नवाने वाले 
इन  हुस्न-ऐ-मुसाहिबों को काबा रिझा नहीं सकता   

फ़रिश्ते सिफारिश ले आयें,जबस  मुमकिन है "तीर्थराज"
वरना दिल्लगी की खातिर मैं औ' सर झुका नहीं सकता 

Friday, February 10, 2012

याँ पहले ही बंटवारे क्या कम थे..
जो तसव्वुर पे छुरियां चलाने लगे  

Tuesday, February 07, 2012

यूँ अपने गम से वल्लाह क्या कम हैं बिस्मिल
जो फकत गैर के तमाशों में शरीक होते फिरें 

ग़ज़ल

हो के रू-ब-रू गर धड़क जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है
फिसलकर जिस्म से निकल जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है 

कर के रुक्सत महफ़िल को जब उठती नजर तुम पर झुके
जुम्बिश धडकनों में हो जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है

लगा कर रूह से,उनकी जो हमने दो अंगड़ाईयाँ चुरा ली 
इस पे आवारा कहा जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है 

उँगलियों की नोक से बदन की लिखावटें पढ़ डालीं तमाम
फिर भी अयाना कहा जावे  तो क्या कीजै,दिल ही तो है 
 
दीद में उम्रें गुजारीं पलकों से पलकें मूँद कर 
नशा आँखों में उतर आवे तो क्या कीजै,दिल ही तो है

जौक-ऐ-सुखन जबस रग-रग में दौड़े है "तीर्थराज"
पे आशिकाना कहा जावे तो क्या कीजै,दिल ही तो है