Monday, April 18, 2011

ग़ज़ल

इस हुकूमत से  उम्मीद कोई बचा ना रक्खी है
सियासी गुफ्तगू में पड़कर अब क्यूँ फिजूल होना 

फकीरों के चोगों का गर्द तो सबने खूब देखा है
किसी ने  देखा नहीं शाहों का जर्द-जर्द होना

बेवफाई के नुस्खों पे अपने क्यूँ इतराता है काफिर
हमने चाहा ही नहीं कभी तेरा हमसफ़र भी होना

गुलाबों की लाली  तो बेइन्तहा  भाती है सबको 
कभी  देखा  भी  है  काँटों  का  लहू-रंग  होना

लाशें अब कब्रों की मोहताज हैं अपनी ही सरजमीं पे
क्या गुनाह है किसी का बस मुसलमान ही  होना

इज्जत-ओ-आबरू रखैल हैं  हैवानियत के घर की
जानवरों  को  भी  शौक  नहीं  अब  इंसान  होना

मोहब्बत की गजलों का इल्म बहुत होगा आपको
अब  देखोगे  कलम से भी  क़त्ल-ए-आम  होना  ||






Sunday, April 17, 2011

ग़ज़ल


कभी जवाब लो मेरा, तो वो सवाल भी लेते आना
जो मिलने आऊं तुमसे मैं,वो रूमाल भी लेते आना

ये माना दोस्त ही थे हम,एह-दे-वफ़ा ना कर सके 
बेवफाई का जो रह गया मलाल,वो मलाल भी लेते आना

सरगोशियों में अपनी कुछ  सोहबतें की थी हमने
तेरे सिरहाने हैं रखे, वो ख्याल भी लेते आना

नज़र आज भी झुकती है तेरी, हर दीदार पे मेरे
जेहन में है जो अब भी,वो सूरत-ए-इकबाल भी लेते आना

ना ला सको अगर कुछ भी तुम तो "तीर्थराज"
कमसकम शहर में उठे चर्चों के वो बवाल भी लेते आना ||


  


  








Wednesday, April 13, 2011

ग़ज़ल

ये इबादत जिसकी करते हैं हम वो खुदा कहाँ है
चीथड़ों में पलने वालों का वो रहनुमा कहाँ है 

फलसफा दिखलाओ कोई इन टूटती निगाहों का
बेख़ौफ़ मंजर के वादों का वो शहंशाह कहाँ है

सजदों में असर भी है, अब अमीरी के  केवल
मुफलिसी के बरकतों का वो आलमपनाह कहाँ है 

काबे के पत्थर भी लगता है, घिसने लगे हैं अब
यूँ  हज को जानेवालों का वो काफिला कहाँ है ??