इस हुकूमत से उम्मीद कोई बचा ना रक्खी है
सियासी गुफ्तगू में पड़कर अब क्यूँ फिजूल होना
फकीरों के चोगों का गर्द तो सबने खूब देखा है
किसी ने देखा नहीं शाहों का जर्द-जर्द होना
बेवफाई के नुस्खों पे अपने क्यूँ इतराता है काफिर
हमने चाहा ही नहीं कभी तेरा हमसफ़र भी होना
गुलाबों की लाली तो बेइन्तहा भाती है सबको
कभी देखा भी है काँटों का लहू-रंग होना
लाशें अब कब्रों की मोहताज हैं अपनी ही सरजमीं पे
क्या गुनाह है किसी का बस मुसलमान ही होना
इज्जत-ओ-आबरू रखैल हैं हैवानियत के घर की
जानवरों को भी शौक नहीं अब इंसान होना
मोहब्बत की गजलों का इल्म बहुत होगा आपको
अब देखोगे कलम से भी क़त्ल-ए-आम होना ||