Tuesday, January 31, 2012


खडका-ऐ-खुदा था उसमे,तो कुफ्र-ऐ-जानिब भी जिन्दा था
मुल्क-ऐ-हिंदी-ओ-उर्दू में एक फारस-ऐ-साहिब भी जिन्दा था 

शायरी का हुनर कुछ फरेब सा लगने लगता है "तीर्थराज"
सुनता हूँ जब किसी दौर में कोई "ग़ालिब" भी जिन्दा था  

Monday, January 30, 2012

मै जब-जब मैखाने हो आता हूँ,तेरा ख्याल ही मुकम्मल रहता है
कभी पूछूँगा साकी से,"उसके तस्सवुर का प्याला बनाते कैसे हो"

Sunday, January 29, 2012

वो सांस भी ले तो हमें खबर हो जाती है "तीर्थराज"
हमने हवाओं को अपना मुखबिर जो बना रक्खा है 

Saturday, January 28, 2012

ताबीर...

ये तुम्हारा चेहरा है... 
कि जैसे फ़रिश्ते का हो अक्स कोई 

ये तुम्हारी आँखें हैं...
कि जैसे सागर से किसी ने दो झीलें चुरा ली हों

ये तुम्हारे गेसू हैं...
कि जैसे शोख घटाओं का बिखरा हो आँचल कहीं

ये तुम्हारी पलकें हैं ...
कि जैसे पैमाने से कुछ-एक बूँद छलकता नशा

ये तुम्हारी खुशबू है...
कि जैसे अर्क की एक-एक बूँद ने सहस्रों गुलाब खिलाये हों

ये तुम्हारी नजर है...
कि जैसे आसमाँ फलक से जमीं पे झुका हो कहीं 

ये तुम्हारे बदन की नक्काशी है...
कि जैसे खुदा की फुर्सत-ऐ-तराश का नमूना

ये तुम्हारे चर्चे हैं...
कि जैसे महताब की लौ में जुगनुओं की गुफ्तगू 

ये तुम्हारी आवाज़ है...
कि जैसे अनकही आरजू में दबी हुई चंद ख्वाहिशें 

ये तुम्हारी चूड़ियाँ हैं...
कि जैसे कमल की पंखुड़ियों पे पहली बारिश की छम-छम 

ये तुम्हारे होठ हैं...
कि जैसे सुबह-सुबह दूब की नोक पे ओस की एक बूँद 

ये तुम्हारी अदाएं हैं...
कि जैसे तितलियों का झूम के मचलना 

ये तुम्हारा एहसास है...
कि जैसे जाड़े की सुबह छूके पानी,बदन की सिहरन 

ये तुम्हारी हँसी है...
कि जैसे कोंपल से फूटते अंकुर का वो उन्माद 

ये तुम्हारा साज है...
कि जैसे मीर की ग़ज़ल में रक्खा एक-एक लफ्ज़ 

ये  तुम्हारी बिंदिया है...
कि जैसे सितारों के बीच वो तन्हा रौशन सा चाँद

ये तुम्हारी मौजूदगी है...
कि जैसे "तीर्थराज" ने ख्वाबों की एक ताबीर लिखी हो     


Friday, January 27, 2012

चलो तुमने कहा तो फिर स्याही लगायी है उँगलियों पे
एक गुज़ारिश है कि कलम चलाने की वजह भी दे दो 

Wednesday, January 25, 2012

गणतंत्रता की वेदी पर जो प्रसून चढ़ाये जाते हैं
नहीं नीर सिंचित अंतर के रक्त जलाये जाते हैं

शासन-ऐ-हिंद के परदे अब चीथड़ों में हैं
आवाम रही हुंकार,हम आते हैं-हम आते हैं 
यूँ बार-बार अलफ़ाज़ जड़ने को मजबूर ना कर "साकी"
नशे की दुकानें उजड़ जायेंगी,मेरी एक ग़ज़ल के साथ   

Monday, January 23, 2012

उसका चेहरा नहीं,हया की एक "दीवार" है 
मैं कुछ "ईंटें" बस निकाल लेना चाहता हूँ 

Wednesday, January 04, 2012

बहुत हुई ये मस्तियाँ,ये कारस्तानी,ये बेसबब मुलाकातें 
जिंदगी तरस रही है,एक नजर उसे भी मिल लिया करो 

Monday, January 02, 2012

सपनो का वो बसा-बसाया गुलशन कहीं खो गया है
अरमानो से सींच के रक्खा चमन कहीं खो गया है

मोहब्बत जिस शख्स से थी बेशुमार अब नहीं मिलता
"तीर्थराज" के चर्चों में ये "संगम" कहीं खो गया है