Tuesday, November 16, 2010

सिसकियाँ

प्यास जगाकर दिल में मेरे
जब त्रिश्नाएं खो जाती हैं
मरीचिका सी मेरी,
सारी इक्षाएं रह जाती हैं|

बेबसी की धूप से,
अरमानो को सींच कर
ललक के शुष्क तरु में
सारी कल्पनाएँ उलझ जाती हैं|

मजबूरियों की ओट में,
चाहतों को छुपाकर
ह्रदय में होकर कुंठित
सारी लालसाएं दब जाती हैं|

बंद कमरों के पिंजर में,
खुद को ही बांधकर
आंसुओं के सैलाब संग
सारी तमन्नाएं बह जाती हैं|

ख्वाइशों को फिर भी लेकिन,
जेहन में अपने संजोकर,
रास्तों की धुंध में
मंजिलें निगाहों में रह जाती हैं|
प्यास जगाकर ...........|

Friday, November 12, 2010

बेतरतीबी और सुन्दरता .....

बड़ी अनोखी कृति है मानव| बालों के झुरमुट से लेकर गद्देदार तलवों तक,बड़ी बेतरतीबी दिखलाई है विधाता ने| कहीं उभरी नाक,तो कहीं कोटरों में धंसी दो-दो आँखें|पंखे की तरह छोटे-छोटे दो कान और हाथों में पांच-पांच उँगलियाँ|पर सबों में असमानता है| दो पैर-पर दोनों,असमानता में छुटपन लिए सम्पूर्ण शरीर का भार उठाने में सक्षम| पर मित्रो,चितेरे अक्सर कहा करते हैं,"बेतरतीबी में भी सुन्दरता होती है"| तभी तो हम कहलाते हैं,'विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति'|
अरे! असमानता में भी सुन्दरता| है न विचित्र बात|

Wednesday, November 10, 2010

IIT....मेरी कलम से

बचपन की अटखेलियों से लेकर आज किशोरावस्था की नोक-झोंक तक,सदा से यही इक्षा रही थी की अध्ययन और ज्ञानोपार्जन में मैं सर्वोच्च से सर्वोत्तम तक जाऊं|और आज जब खुद को देश के सबसे बड़े तकनीकी संस्थान में पाता हूँ तो ऐसा लगता है मानो  वैसी अवधि आ गई हो जो काल की गणना में आती ही नहीं|
चंचलता और चपलता के बीच मन में एक अजीब सी शांति है|प्रतिस्पर्धा है,पर एक संतुष्टि की भावना के साथ| है हमें जाना कहाँ,चले है कहाँ से हम;इन सब ख्यालों के बीच आज  लगता है हम थम से गए हैं| पर ये रुकना हमारी निस्पंदता  नहीं,वरन शारीरिक एवं मानसिक स्थिरता का वो मिलन बिंदु है जहाँ से एक नए युग की शुरुआत होगी,एक नए युग का आगाज़ होगा-"मेरा युग,हमारा युग"....

Tuesday, November 09, 2010

रिक्शावाला

औरों को क्या?
खुद को ढो रहे हैं हम,
जिंदगी के नाम पर
मौत जी रहे हैं हम
पेट और पीठ मिलकर
थके हुए से प्राण हैं
हारी हुई मेरी चमू में
हँस रहे भगवान हैं
झेठ की दुपहरी में
तन झुलसता जाता है
पूस की उस रात में
सर्द भी तर्पाता है
बस एक परदे की ओट में
आबरू मेरी है धरी
धुन्मुनो की बिलखती
सिसकियों से घिरी
कंठ छिल चुके हैं उनके
चंद दानो की आस में
अब तो चूल्हे पर उबलता पानी भी
हँसता है रंजिश-ए-उपहास में
आटे को यूँ घोल-घोलकर
कब तक पीते रहेंगे वो
जठराग्नि को यूँ आंसुओं से
कब तक भिगोते रहेंगे वो|
कब तक क्षुधा यूँही इनके
अश्क पीती जाएगी
कीट समझकर मानवों को
वो यूँही तर्पाएगी
अट्टालिकाओं में सेज पर है
सो रहा कोई मौज से
बेफिक्र इसी धरा पर पड़ी
झुग्गियों की फ़ौज से
रक्त मेरी नसों का भी
एक दिन उबलकर आएगा
जग परन्तु फिर भी लेकिन
न चकित भर्मायेगा
लाख रोके यह मनुज
अपनी ये अंतर्भावना
पशु बनकर गिरेगा वो
पतन में मत कोसना
शोणित के प्लावन से महि
तृप्त होती जायेगी
पर धुनमुनो की क्षुधा
प्यासी ही रह जाएगी....

प्रतिज्ञा

धमनियों में बहते 
रक्त की पुकार है
रुको न तुम झुको न तुम 
यही समर की ललकार है
मुट्ठियों को भींचकर 
शोणित कणों को त्वरित करो
अचल हो,विजयी हो
पर अब तुम अजेय बनो
बाल्व्य का  पहिया
यूँही धिल्मिल लुढ़क जायेगा
तुम नहीं तो और कोई
शिखर तक पहुँच जायेगा
चाह यह रखो
है गगन तुम्हे भेदना
नहीं केवल सितारों की 
टिम्तिमो से खेलना

Monday, November 08, 2010

यूँ तो अकेला ही चल रहा हूँ मैं ...

रात का धुंधलका है ,
गहराती चांदनी में मैं चल रहा हूँ 
रास्ते खामोश हैं
 पत्तियों की सरसराहट को भी मैं सुन रहा हूँ 
किसी अनछुए छुअन की अनुभूति सी हो रही है 
सांस दर सांस 
मेरी रूह भी महक रही है |
यूँ तो अकेला ही चल रहा हूँ मैं 
पर इन हवाओं में तेरी हर आहट सुन रहा हूँ मैं 
स्वाति की सीपियों में 
मोती बंद होते हैं जिस तरह 
तुझे तुझसे लेकर 
खुद में वैसे ही सिमट रहा हूँ मैं |
यूँ तो अकेला ही चल रहा हूँ मैं .....
झिलमिलाती नजरें तलाश रही हैं तुझे 
इन आँखों में तेरी तस्वीर लिए भटक रहा हूँ मैं 
उस आगोश की चाह में 
मेरा रोम-रोम पुलकित है
पल-पल तेरी बाहों में टूटकर बिखर रहा हूँ मैं |
यूँ तो अकेला ही चल रहा हूँ मैं...
खामोशियाँ हैं चीख-चीख कर कह रही मुझसे
अपनी तनहाइयों से ही तो बातें कर रहा हूँ मैं
ये जानकार भी ,
की तेरा अक्स कहीं नहीं है आस-पास 
क्यों,....क्यों..
खुद के साए में भी 
हर पल तुझे ही ढूंढ रहा हूँ मैं |
यूँ तो अकेला ही चल रहा हूँ मैं ...