Friday, August 23, 2013

नज़्म

हम चुप-चुप से बैठे रहते हैं
एक दूसरे के साथ होकर भी
जब कोई तीसरा आ कर
जिक्र छेड़ देता है किसी चौथे का
तब दो बातें हो जाती हैं आपस में
ख़त लिखने का तो अब रिवाज़ ही उठ गया
नहीं तो पोस्टकार्ड पे लिखे वो लफ्ज़
बोलते से मालूम होते थे अक्सर
टेलीफोन की घंटियाँ बजने पर भी
वो उत्साह नहीं होता, दौड़ कर चोगा उठा लेने का
कई घरों में तो वो चोगे हैं भी नहीं
लोग जेब में डाल कर ही घूमते हैं दूरभास को
फिर भी बातें नहीं होती कभी
शायद निदा फाजली को सुन रखा है सबने
" बात कम कीजे, जहानत को छुपाते रहिये"
जहीन नहीं हैं हम, बस उम्र की चादर ओढ़े
थोड़े से बड़े हो गए हैं ॥




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