Wednesday, September 28, 2011

ग़ज़ल

सफेदपोशों को तुम क्या सियासत सिखलाओगे भला
राह चलते इनकी टोपियाँ क्यूँ उछलवाओगे भला

इस घर में पहले ही सौदागर बहुत से हैं मौजूद
फिर उन बाज़ारों में क्यूँ तुम जाओगे भला

शहर का हर शख्स मजमे में शामिल है 'तीर्थराज'
तुम आखिर किस-किस पे उंगलियाँ उठाओगे भला   

Saturday, September 17, 2011

अच्छा लगता है...


अच्छा लगता है...
झटक कर जुल्फ जब तुम गेशुओं से बारिशें आज़ाद करती हो
अच्छा लगता है...


अच्छा लगता है...
भींच कर होंठ जब तुम अधरों से मुस्कुराहटें इरशाद करती हो 
अच्छा लगता है...


अच्छा लगता है...
बलखा कर चाल जब तुम घुंघरुओं से धुनों का साज करती हो
अच्छा लगता है...


अच्छा लगता है...
झुका कर पलकें  जब तुम निगाहों से इशारे इजाद करती हो 
अच्छा लगता है...

अच्छा लगता है...
जता कर इश्क जब तुम चाहत से मोहब्बतें आगाज़ करती हो
अच्छा लगता है...

अच्छा लगता है...
लिपटा कर दुपट्टा जब तुम उँगलियों से बहाने चार करती हो
अच्छा लगता है...


अच्छा लगता है...
छुपा कर रस्म जब तुम सजदे से दुआएं फ़रियाद करती हो
अच्छा लगता है...

अच्छा लगता है...
बता कर राज़ जब तुम खामोशियों से गुस्ताखियाँ इकरार करती हो 
अच्छा लगता है...

अच्छा लगता है...
मिटा कर फासले जब तुम सरगोशियों से सोहबत-ए-नाज करती हो
अच्छा लगता है...


अच्छा लगता है...
छुपा कर हुस्न जब तुम चिलमन से परवान-ए-दीदार करती हो
अच्छा लगता है...

अच्छा लगता है...
बदल कर करवट जब तुम तकिये से,"सुनो तीर्थराज" कहती हो
अच्छा लगता है...

Tuesday, September 13, 2011

ग़ज़ल

ये इश्क नहीं 'फ़राज़' हमें तो चाहने की आदत है
सितम सहकर भी उनके,मुस्कुराने की आदत है

जिन्हें देखना है वो शौक से देखें चाँद को
हमें तो यूँही हर रात जागने की आदत है

महफ़िल में मैंने इल्जाम लिया तो क्या किया
उसे तो वैसे भी उँगलियाँ उठाने की आदत है

मोहल्ले में फिर कभी तुम बेपर्दा ना निकलना
गली के बूढों को भी सीटियाँ बजाने की आदत है

'तीर्थराज' क्यूँ बात-बात पे खफा हो जाते हो तुम
इन्सां हैं हम भी ,ये खताएं करने की  आदत है