Friday, April 20, 2012

कहाँ मुनासिब किसी को उनकी रू-ब-रू-औ'-सोहबत
खुश-किस्मत हैं हम जो जुबाँ से दीद किया करते हैं..


Thursday, April 19, 2012

'ग़ालिब' वो तेरा दौर भी क्या खूब हुआ करता था.. 
ढाई अक्षर पढ़ा औ' सारी जमातें मुकम्मल कर लीं   


ग़ज़ल

वही रोज-रोज के किस्से वही दिल से दिल की बगावत भी
किसी दिन लगता है क़त्ल होगी मेरे हाथों ये मोहब्बत भी

अच्छा हुआ कि हम सब ने फरेब का दामन थाम रक्खा है    
वरना आजकल होती है सर-ऐ-बाज़ार नीलाम शराफत भी 

हर किसी पे इस कदर कीचड ना उछालो हिन्दोस्ताँ वालों 
कहीं-कहीं तो मिलाती है नज़र आवाम से ये सियासत भी  

अब और उसके सितम किस अलफ़ाज़ में बयाँ करें 'तीर्थराज'  
सर झुका चाहता है,दे दी जिसको,क़त्ल करने की इजाजत भी



Sunday, April 15, 2012

मैं एक  वायज बन बैठा सुखनवर बनते-बनते
खुद ही घायल बन बैठा चारागर बनते-बनते

शक्शियत ये कैसी अता की मुझे, तुम ने खुदा
वो मेरा शागिर्द बन बैठा हमसफ़र बनते-बनते 


Thursday, April 12, 2012

ग़ज़ल

जिसके सीने में जख्म नहीं एक जुनूँ है
जिसकी खातिर अब दर्द ही एक सुकूँ है

मौत मुंसिफ थी तेरी सो आ गई 'गुलज़ार'
जिंदगी से उसका नाता फिर क्यूँ है,क्यूँ है

वो खुद को मिटाने पर आमादा है ऐ खुदा
मेरे यार की तबीयत आज कुछ यूँ है,यूँ है 

बहुत हुआ कि हौसलों की भी इन्तेहा हो गई 
तमाशों में भी लेके जाता नजर-ऐ-खूँ है,खूँ है 


मर्द

अश्क पलकों पे सूख जायें जिसके उसे मर्द कहते हैं
उसे वो सुकून मुनासिब नहीं होता,जिसे दर्द कहते हैं 

उलझनों में तारीखें बेसबब निकल जाती हैं अक्सर 
हश्र-ऐ-खूँ निभाता है रिश्ते,लोग जिसे क़र्ज़ कहते हैं

कोई रंजिश-कोई शिकवा देहलीज लांघ नहीं पाता
करीब रहा जो एक शख्स उसके,उसे हमदर्द कहते हैं

निचोड़ कर हथेलियाँ अपनी मैं जुबाँ सिल भी लेता हूँ 
कभी फुर्सत में मिल जाना,बतलाऊँ किसे फ़र्ज़ कहते हैं 


  

Sunday, April 08, 2012

ग़ज़ल

बयान-ऐ-गम पे भी मुक़र्रर-ऐ-इरशाद कहने लगे
एक छोटी सी ख्वाहिश को तुम फ़रियाद कहने लगे

है कौन यहाँ आबाद जरा शक्लें दिखाए मुझे
किसी ने इश्क क्या किया,उसे बर्बाद कहने लगे

दो लफ्ज़ आज भी उधार हैं तुम पर मेरे 'तीर्थराज'
जरा शोहरत क्या मिली खुद को उस्ताद कहने लगे 

Wednesday, April 04, 2012

ग़ज़ल

कुछ-कुछ जो तुम रोज लिखा करते हो
वो कौन है भला जिसको अता करते हो

जुबाँ फिर क्यूँ जाती है मजलिस में तेरी 
सुना है खामोशियों में खूब कहा करते हो

ना कोई ख्वाब ना किसी उम्मीद की गुंजाईश
फिर इन रेशमी धागों से क्या बुना करते हो  

खुद तो कुफ्र के मुलाजिम बन के हो बैठे
मियाँ किसकी खातिर इतनी दुआ करते हो 

एक लम्हा था साँसों का वो गुजर गया 'तीर्थराज'
माजी की सड़क पे राह जिसका तुम तका करते हो