अश्क पलकों पे सूख जायें जिसके उसे मर्द कहते हैं
उसे वो सुकून मुनासिब नहीं होता,जिसे दर्द कहते हैं
उलझनों में तारीखें बेसबब निकल जाती हैं अक्सर
हश्र-ऐ-खूँ निभाता है रिश्ते,लोग जिसे क़र्ज़ कहते हैं
कोई रंजिश-कोई शिकवा देहलीज लांघ नहीं पाता
करीब रहा जो एक शख्स उसके,उसे हमदर्द कहते हैं
निचोड़ कर हथेलियाँ अपनी मैं जुबाँ सिल भी लेता हूँ
कभी फुर्सत में मिल जाना,बतलाऊँ किसे फ़र्ज़ कहते हैं