Thursday, November 24, 2011

बलाएं ऐसी हैं कुछ जिन्हें चाहकर भी छुपाया नहीं जाता
गुफ्तगू इशारे करते हो जहाँ,कलाम फ़रमाया नहीं जाता

कागज़ पे लिखी ये चंद आयतें, इमाम की जागीरें होंगी 
इश्क वो हुनर है जो किसी मदरसे में सिखाया नहीं जाता 


शमा की हरकतों का हाल-ए-बयाँ देखो कभी
सुर्ख रुखसार की शर्म-ओ-हया क्या चीज है 

जाँ देने की खातिर मुकम्मल वजह भी तो हो
दो-चार हसीं चेहरों की शोख-ए-अदा क्या चीज है 

Saturday, November 19, 2011

महबूब से बेशक,बड़ी कोई चाहत नहीं 
इश्क है आखिर हुस्न-ए-तिजारत नहीं 

खुदा की खातिर इन्सां को इन्सां रहने दो 
मोहब्बत करो "तीर्थराज" इबादत नहीं 

Friday, November 18, 2011

बवंडरों के खौफ का सबब ये जलजले नहीं होते
तितली की ताकत में आसमाँ के हौसले नहीं होते 

लकीरें बदल डालो "तीर्थराज" गर बगावत करती हों
बगैर तेरी इजाजत,कभी मुकद्दर के फैसले नहीं होते 

Thursday, November 17, 2011

तू मुझे भुलाने की तरकीबें ना इजाद कर "तीर्थराज"
खामखाँ इस बहाने तुम्हे हमारा ख्याल आता होगा 

Wednesday, November 16, 2011

ग़ज़ल

झूठे इशारों पर भी जो मुस्कुराने लगते हैं
महफ़िल में वही चेहरे कुछ पहचाने लगते हैं 

तौफीक से अपनी,ये हया पे परदे डाल कर
हुस्न-ए-हराम का घूंघट सरकाने लगते हैं 

इनकी मोहसिन मिजाजी का है अंदाज अलग 
काबे के जलसे में भी सिक्के बरसाने लगते हैं 

चेहरे हिजाबों में रख कर पेश-ए-नजर कीजिये
त्योरियों की हरकतें भी इन्हें अफ़साने लगते हैं 

होश-ओ-खबर में तालीम-ए-इश्क दे रहे हैं "तीर्थराज"
जिस हुनर की खातिर वायज को पूरे मैखाने लगते हैं 

Monday, November 14, 2011

कल ये गम था,मुझे हासिल नहीं है तू
आज ये फक्र है,मेरे काबिल नहीं है तू 

Saturday, November 12, 2011

सुना है मुझ से बिछड़ के, तू भी तो तन्हा बहुत है 
एक मुलाकात को राज़ी हुए, जब हमने कहा बहुत है 

तूने तो फिर भी दो-चार पल की मोहलत दे दी हमें
तुझे दीवाना बनाने को,मेरी खातिर एक लम्हा बहुत है 

Thursday, November 10, 2011

ओ जुगनुओं की रौशनी को भी अंगार समझने वाले
मुकम्मल शख्स है,जो आफ़ताब से नजरें मिला सके

आये बड़ी नियत-ए-गुरूर से थे जागीरें खरीदने मेरी 
एक फटी हुई आस्तीन की भी कीमत ना लगा सके  


फुर्सत में तेरा ख्याल भी जैसे एक इबादत है
जर्रा-जर्रा मेरी रूह का तेरी ही मिल्कीयत है

ताबीर निगाहों की तू भला कैसे समझे "तीर्थराज"
काश कि हम कह पाते,हमें कितनी मोहब्बत है 
सहूलियत-ए-इश्क में फिर मजा कैसा "तीर्थराज"
वो महबूब ही क्या जिसका सितम खुदाई ना हो  
मेज के उस तरफ की कुर्सी खाली रहती है अब
एक सूना ग्लास,थोड़ी सी काजू,दो बादाम बचे हैं 

वो नशीली पलकों वाला शख्स रूठा-रूठा है हमसे 

Wednesday, November 09, 2011

दो-एक बूँद रिमझिम से,थोड़ी धुंधली पड़ गयी है
वो तस्वीर तेरी जो कब से मेरे सिरहाने रक्खी थी

आहिस्ता-आहिस्ता सही रौनकें उड़ाने लगी हैं अब
लाली तेरे होठों की जो तुझे चूमने के बहाने रक्खी थी  

Tuesday, November 08, 2011

ग़ज़ल

कुछ अपना दिल कुछ तसव्वुर-ए-इदराक मिला के लिखता हूँ
मैं जब भी लिखता हूँ स्याही-ओ-लहू मिला के लिखता हूँ

प्यासे शहर भर में दहलीज-ए-सुखन की पनाह मांगते हैं 
मैं आजकल उसकी जुल्फों से घटाएं चुरा के लिखता हूँ 

आइना बासफा लफ्ज़ कहें बेबाक,उसकी फितरत है जालिम 
रेजा-रेजा अक्स के चेहरे से,मैं सिलवटें छुपा के लिखता हूँ 

कौन जाने उसकी बेनियाज़ी में कैसी हसरतें हैं मुज्मर
वो सितम ढाता है ख़ुलूस से,मैं वफायें निभा के लिखता हूँ

इन मुशायरों में इब्तेदा की गुंजाईश थोड़ी कम है "तीर्थराज"
लफ्ज़ ग़ज़ल बनाते हैं,मैं नज्मों से अलफ़ाज़ बना के लिखता हूँ 



Saturday, November 05, 2011


ये जो मेरे दामन पर कजरारे छींटें हैं थोड़े-बहुत
झाँक के देखो,तेरे गिरेबाँ से धूल कुछ उडी लगती है 

Thursday, November 03, 2011


कलम उट्ठी तो स्याही ने फिर वही कलाम लिख दिया
दस्तूर-ऐ-दिल-ऐ-सूरत-ऐ-हाल तमाम लिख दिया

नजाकत-ओ-हसरतें इन उँगलियों की भी थी "तीर्थराज"
जिधर भी मुड़ीं ....बस उसी का नाम लिख दिया 
तेरी नादानियों की फेहरिश्त में,चर्चे मेरे भी खूब हैं
बदनाम इस शहर भी हैं,बदनाम उस शहर भी हैं 
शरारत उन निगाहों ने कुछ यूँ की मेरे दिल से
झुकती पलकों की हरकतों में खुद को ही भुला बैठे

गुस्ताखियाँ तो हमने भी की थी,चाहतों की आड़ में
कसम पैमाने की,भरे मैकदे में खुद को छलका बैठे  
दौलत की भूख होती है यहाँ,बलंदी की प्यास नहीं होती
बेवजह अमीर बिकते हैं खूब,फकीरों की रात नहीं होती

जन्नत-ओ-दोजख की फेहरिश्त में लुट गए कितने
कैसे कहें इनसे,कफ़न में जेब की औकाद नहीं होती 
अक्सर तेरी याद आती है तो भीग जाता हूँ बौछार से
तुम बेखबर सी रहती हो 'चाँद'...चैन-ओ-करार से

अपनी वफ़ादारी का अब और सिला क्या दूँ "तीर्थराज"
हमने नफरत भी की है तुमसे ...तो बड़े प्यार से 
ये अलग है तेरे काबिल कोई हजरात हो ना हो
किसी के दिल ना हो,किसी के जज्बात हो ना हो

तेरे हर पैमाने पर मैं ही खरा उतरूंगा "तीर्थराज"
भले ही लोग कहें ...मुझ मे वो बात हो ना हो 
सरस्वती कल बड़े प्रेम से कह रही थीं लक्ष्मी से
एक शिकायत है बहन आजकल बस तुम्ही से

तुम तो शौक से इतराती हो नाकाबिलों के सर
मैं क्यूँ लडती रहती हूँ रात-दिन इस मुफलिसी से 
कहीं खुदा होता है कोई,तो कोई खाकसार होता है
बेवजह यूँ ही नहीं..कभी किसी पे ऐतबार होता है

वो मिला था बरसों पहले,मैं तबसे कह रहा हूँ 
शौक-ए-मोहब्बत में वफायें लाख कर ले कोई

मगर प्यार "तीर्थराज" बस एक बार होता है 

मिटा डाले वो फलसफे जिनमे तेरी तस्वीर थी कभी
जो आँखें मूँद ली हमने ..तुम फिर से मुस्कुरा उठे 
इन घटाओं की बौछार से क्या डरे कोई
हमारी एक फूंक इन बादलों पे भारी है

समंदर से कह दो लहरें संभाल के रक्खे अपनी
हमने कश्तियाँ अभी-अभी मौजों पे उतारी है 
आहिस्ता-आहिस्ता वो संगदिल हुई और मेरी जान बन गयी
आबरू उसकी जो थी कल तलक,अब मेरी भी पहचान बन गयी

क्या बताऊँ... अलफ़ाज़ का एक ऐसा दौर चला "तीर्थराज"
उर्दू कभी नहीं थी मेरी,लेकिन फिर भी मेरी पहचान बन गयी 
आंधियां जन्नत-ए-जमीं उड़ाकर ले गयीं कबकी
कोई  अब भी 'सुरखाब के  पर' ,ढूंढ रहा शायद

जिंदगी अब उसके घर भी नहीं मिलती "तीर्थराज"
कफ़न की दुकानों पर खुदा खुद बैठा है शायद 
बहुत देखे जलवे अमीरी के,मुफलिसी भी खूब देखी है
टूटते ख्वाब देखे हैं गर...,तो शोहरतें भी खूब देखी हैं 

स्याह रातों का इल्म भी बखूबी है "तीर्थराज"
हमने छत से टपकती चांदनी भी खूब देखी है 
ऐ जिंदगी... मुझे थोड़ी सी मोहलत तू और दे दे
अभी तक नहीं किया है उनसे अपनी मोहब्बत का जिक्र 
मजबूरियों की ओट में इरादों को मत कुचलना
बंदिशों में रहकर... मुकद्दर कभी बनता नहीं 

खैरात में मिल जाती है किसी को दस्तरस-ए-जहां 
गुलामों की हुकूमत कर 'सिकंदर' कोई बनता नहीं 
नुमाइश-ए-हुस्न को गर इश्क कहें,फिर 
क्यूँ कहते हैं,"मोहब्बत अंधी होती है"

नहीं लेते अब उस बेवफा का नाम कभी
बेवजह जुबाँ अपनी ही गन्दी होती है 

सारी कलाबाजियां शौक-ओ-नुमाइश के लिए नहीं होतीं 
मुक़ाबिल-ए-अंजाम के लिए भी कोई तरकीब रक्खा करो

सियासी  मशवरों की ये पहली तालीम है "तीर्थराज"
दोस्तों को नहीं....दुश्मनों को अपने करीब रक्खा करो 


कल गुज़रा था उन गलियों से जहाँ के पत्थर भी बदनाम हैं
जमाना तवायफ कहता है जिन्हें देखा तो वो भी इन्सान हैं

पलट कर देख खुदा कितनी मजबूर है तेरी ये पैदाइशें भी
जो चंद सिक्कों कि खातिर बेच रहे जिस्म-ओ-ईमान  हैं 


अपने मुकद्दर में एक लकीर उसके नाम क़ी भी खिंची है "तीर्थराज"
मैं बेख़ौफ़ हूँ इसलिए कि आखिर खुदा अपना लिखा कैसे मिटाएगा 

मुझसे इस कदर भी पर्दा ना कर ऐ हमनशीं,कि
ये नजर तरस जाये अजीज-ए-हुस्न नजराने के

ये कुछ फासले जो हैं दरमयां हमारे "तीर्थराज"
कमसकम बहाने तो हैं तेरे और करीब आने के 

मुलाकातें जरूरी नहीं आशिकी का सबब जताने को "तीर्थराज"
वो महबूब ही क्या जिसने तनहाइयों  से इश्क ना किया हो 

वो इनकार-ए-बयाँ भी शौक-ए-मोहब्बत में क़ुबूल है "तीर्थराज"
कमसकम इस सुकूं से जियेंगे कि आखिर उसका पैगाम तो आया  

तेरी तौफीक-ओ-तारीफ में कलाम अब कौन सा पढूं 
मेरी हर ग़ज़ल में तो तेरा ही निशान-ए-बयाँ रखा है 

लहू टपका इन आँखों से तो कोई गम नहीं
अश्कों के अपनी वो कीमत मांगते हैं अब 

दिल्लगी दिलवालों से क्यूँ सीखते हो "तीर्थराज"
दस्तूर बनाये ही जाते हैं.... मिटाने की खातिर 

मुल्क के पुर्जों को सियासी जंग लग गयी है
बुलबुलों की चहक ना जाने कहाँ खो गयी है

नजर उतारा करती थी माँ...चाँद से बेटों का
क्या करें ये बेटे अब,नजर माँ को लग गयी है 


मै का इल्म मैखानो में मत ढूंढ "तीर्थराज"
नशे का सबब तो फतह-ए-मंजिल में है 

मुदत्तों पहले जब यूँही मिले थे तुम
ये जगह हमने तब से संभाल के रक्खी है

दरिया-ए-इश्क में जाने कितने तूफाँ उठे होंगे
हमने हर लहर से कश्ती निकाल के रक्खी है 

जिन पलकों की रिमझिम तले मैं कल तक भींगता रहा
वो आज कहता है "तीर्थराज" मेरे अश्कों के लिए उँगलियाँ और भी हैं 
शिकायत क्यूँ करते हो... वो कितना मगरूर हो चला है 
कल तक तो कायल थे "तीर्थराज" उसी अंदाज-ए-गुरूर के 
उसे इतनी शिद्दत से भी ना तका करो "तीर्थराज"
 बेकरारी में कहीं खुद की नजर ना लगा बैठो  
ये चाँद का गुरूर नहीं उसकी फितरत है "तीर्थराज"
तुम बेवजह अपनी खुद्दारी का सौदा कर बैठे 
हमारी शोहरत के ताज दीवारों पे नहीं मिलते
आँधियों के शौक़ीन परिंदे मुंडेरों पे नहीं मिलते

जाकर ढूंढो "तीर्थराज" को लहरों के भंवर में कहीं
हम वो मोती हैं जो कभी किनारों पे नहीं मिलते 
बंदिश-ए-मोहब्बत से कभी दुश्मनी ना कीजै "तीर्थराज"
इश्क वैसे भी बेपर्दा हो जाये तो मुकम्मल मजा नहीं देता 
तुम लाख इनकार करो मेरी गुजारिशों का मगर "तीर्थराज"
देखना ये है कि तुम्हे हमसे बेहतर आखिर चाहता कौन है 
हर शख्स नहीं इस कदर अलफ़ाज़ की कारीगरी करता है
ये हुनर बाज़ारों में नहीं बिकता ..जो खरीददारी करता है

सुखन का इल्म हो जिगर में तभी मुशायरों में आया करो
"तीर्थराज" कभी शायरी नहीं करता..वो जादूगरी करता है  

मुझे और दिल्लगी का इल्जाम ना दे "तीर्थराज"
एक उससे मोहब्बत ने ही दिल की लगा रक्खी है  
पैमाने से छलकता नशा बेशक उसकी आँखों से कम है "तीर्थराज"
हम तो पीते हैं इस शौक से कि उस नजर से रू-ब-रू ना हो सकें 

Wednesday, November 02, 2011

'मधुशाला'


"तीर्थराज" के अधरों को जब छू गयी पावन हाला
मदिरालय में होकर हर्षित झूम उठी साकी बाला
अगणित दफे सुने थे उनसे जलवे इस पैमाने के
एक बार जो चखी तो मैंने पी ली पूरी 'मधुशाला'


हाथ उठाकर देखो तुम भी रास-सुरा का एक प्याला
फेंक उतारेगी ये तेरी जुबाँ पे रक्खा वो ताला
 मदिरालय में अपने आंसू "तीर्थराज" तुम ले आओ
शुरू करेंगे पीनेवाले,ख़त्म करेगी 'मधुशाला'


मृगनयनी किसी पर मैं था ह्रदय लुटाता मतवाला
छलक-छलक खुद को छलकाकर पास बुलाती थी हाला
अधरों से जिसके पी-पी कर "तीर्थराज" इतराता था
चला गया है यौवन उसका,जवां अभी है 'मधुशाला'




काशी-तट पर कुषा बिछा मैं जाप रहा तुलसी-माला
एक अंजुली में गंगाजल..दूजे में भर कर हाला
किस मंथन में जुटे हो योगी,रघुवर ने ही पूछ लिया
पाप,पुण्य को तोल रहा हूँ.प्रभु जीत रही है 'मधुशाला'

ग़ज़ल

पैमाने मैकदों में तरसते होठों की चाह करते हैं
शौकिया पीनेवाले कहाँ साकी की परवाह करते हैं

चाहत  में बेकरारी नागवार गुज़रती है अक्सर 
बासफा इश्क करनेवाले सब्र-ए-निगाह करते हैं 

तुमने देखा नहीं हुनर-ए-सुखन का जादू "तीर्थराज"
मरघट  में जो शेर पढूं तो मुर्दे वाह-वाह करते हैं 


आशिकी अल्फाज़ को भी बरबस ही ग़ज़ल बनाती है
लफ्ज़-ए-हकीर को भी ये नज़्म-ए-अमल बनाती है

चांदनी हया से पलकें मूँद लेती है "तीर्थराज"
वो लड़की जब कभी आँखों में अपने काजल लगाती है 

Tuesday, November 01, 2011

कहते हैं लोग वो तेरे काबिल नहीं है "तीर्थराज"
गुस्ताख तो हम भी हैं जो आदत से मजबूर हुए